पहली औरत / औरत होने की सज़ा / महेश सन्तोषी
मैं तुम्हारी जिन्दगी में पहली औरत थी, पहला प्यार नहीं
शायद इसीलिये तुम्हें अब मेरा नाम तक याद नहीं।
देह की दीवारों पर उठे थे
जिन संबंधों के घर
उनके ऊपर न आत्मा की छत थी
न नीचे विश्वास के पत्थर।
भावना की एक पगडंडी तक नहीं थी,
उनके आगे चलने को
परछाइयाँ तक नहीं थी
उनके पीछे आने को तत्पर।
तुम मेरे जीवन का पहला प्यार थे, पहले पुरुष नहीं
यह बात और है कि तुम्हें यह बात अब याद तक नहीं।
हमारी बाँहों के बंधन के आगे
भी थे बहुत से बंधन
तुमने कभी मुड़कर देखा तो होता,
मेरा बार-बार झुलसा मन।
तुम्हें क्या पता क्या होती है
प्यार ढोने, ओरत होने की व्यथा
प्रणय-पिपासा ही नहीं होती
प्यार की अंतिम भाषा, अंतिम आचरण
उम्र से लम्बे हैं अब मेरे और तुम्हारे फासले
न स्थायी प्यास की सरहदें हैं, न लुटे विश्वास की।