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पहली बार ये देखा है / निशांत मिश्रा

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इंसानों की इस बस्ती में इक अजब तमाशा देखा है,
हर रोज़ यहाँ मैंने इंसानियत को मरते देखा है,
हर चीज़ है बिकती इस बस्ती में,
यह तो मैंने देखा था,
लेकिन बिकता है इन्सां भी,
यहाँ पहली बार ये देखा है,
चांदी के सिक्कों की खातिर,
हर चीज़ को बिकते देखा है,
लेकिन मज़हब भी बिकता है,
यहाँ पहली बार ये देखा है,
कहीं भूख कहीं लाचारी को,
यहाँ मैंने बिकते देखा है,
लेकिन बिकती औलादें भी,
यहाँ पहली बार ये देखा है,
सीता राधा की धरती पर,
हर एक को बिकते देखा है,
लेकिन नारी भी बिकती है,
यहाँ पहली बार ये देखा है