पहली मेहिल सांझ / मोहन अम्बर
नाच-नाच मन मयूर प्राण पिकी बोल,
ढोल बजे, ढोल बजे, बरखा के ढोल।
दिन भर का थका-थका आँगन में बैठा हूँ,
पत्नी ओ बच्चों की सुधियाँ उमगाती है,
मेरी उस दो वर्षी लड़की के हाथों-सी,
माथे के बालों को पुरवा सहलाती है,
अनगाये रहना तो बहुत-बहुत मुश्किल है।
झूल-झूल गीत आज भावना हिंडोल,
ढोल बजे, ढोल बजे, बरखा के ढोल।
बादल के बग्घी में सागर की बिटियाएँ
धरती की चटशाला पढ़ने को आती है,
उनके उन सतरंगी वसनों पर ललचाकर,
हँसता है पीपल तो कोयल इतराती है,
साथ मोलकरनी-सी आंधी भी बैठी है।
बस्ती के लड़कों कुछ कम करो ठिठोल,
ढोल बजे, ढोल बजे, बरखा के ढोल।
श्रंृगो को देखो तो लगता है जैसे वे,
आसाढ़ी पहलवान बैठे हों तेल चुपड़,
उन्मादिन नदियों को उपदेशी वृद्धों से,
दोनों तट कहते हैं पगली मत व्यर्थ अकड़,
पनघट, सर, पोखर भी ऐसे खुश लगते है।
बालक ज्यों वर्षा में पढ़ले भूगोल,
ढोल बजे, ढोल बजे, बरखा के ढोल।
अफगानी औरत-सी सुन्दर है साँझ आज,
स्लेट स्याह बुरका जो पूरब में टाँग रही,
धरती मजदूरिन के फैलाये हाथों-सी,
मालिक इस मौसम से मजदूरी मांग रही,
मौसम तू ज्ञानी ईमानदार मालिक तो।
प्यास और पानी को ठीक ठीक-तोल,
ढोल बजे, ढोल बजे, बरखा के ढोल।