भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पहलुए ख़्वाब में भी तुम न गर क़रीब हुए / सुरेश सलिल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पहलुए ख़्वाब में भी तुम न गर क़रीब हुए
तब तो तै है कि हम पैदाइशी ग़रीब हुए

ख़्वाबबीनी भी मियाँ, शग़्ल है, कर लो कर लो
दरहकीक़त तो तुम उस दस्त की जरीब हुए

रौशनी के लिए इक शम्अ ही काफ़ी होती
बदनसीबों के पर ऐसे कहाँ नसीब हुए

उनके आते ही याँ, आजाए बज़्म में रौनक
एक तुम हो कि ख़ुद कान्धा हुए, सलीब हुए

ख़्वाब यारों ने दिए, ज़ख़्म भी, तन्हाई भी
तुम्हारे साथ सलिल हादिसे अजीब हुए ।