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पहलू-ए-शाह में ये दुख़्तर-ए-जमहूर की क़बर / साग़र ख़य्यामी

पहलू-ए-शाह में ये दुख़्तर-ए-जमहूर की क़बर
कितने गुमगुश्ता फ़सानों का पता देती है
कितने ख़ूरेज़ हक़ायक़ से उठाती है नक़ाब
कितनी कुचली हुइ जानों का पता देती है

कैसे मग़रूर शहनशाहों की तस्कीं के लिये
सालहा-साल हसीनाओं के बाज़ार लगे
कैसे बहकी हुई नज़रों की ताइश के लिये
सुर्ख़ महलों में जवाँ जिस्मों के अम्बार लगे

सहमी सहमी सी फ़िज़ाओं में ये विराँ मर्क़द
इतना ख़ामोश है फ़रियादकुना हो जैसे
सर्द शाख़ों में हवा चीख़ रही है ऐसे
रूह-ए-तक़दीस-ओ-वफ़ा मर्सियाख़्वाँ हो जैसे

तू मेरी जाँ हैरत-ओ-हसरत से न देख
हम में कोई भी जहाँ नूर-ओ-जहाँगीर नहीं
तू मुझे छोड़ के ठुकरा के भी जा सकती है
तेरे हाथों में मेरा हाथ है ज़जीर नहीं