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पहले-पहले देखा मैंने / सुरेश कुमार शुक्ल 'संदेश'

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मै हूँ वृक्ष तपस्या की
जीवन्त मूर्ति साकार परम,
पृथ्वी का उपहार
आदि जीवन का सुन्दर रूप प्रथम।

पहले-पहले देखा मैंने
धरती का विस्तार अनन्त,
निर्वस्ना माटी की गाथा
पवन कर रहा था रसवन्त।

यत्र-तत्र निर्मल जल की
धाराएँ कल-कल गााती थीं
थ्हमगिरि के पावन चरित्र
कहती-सी बढती जाती थी।

शीलत मधुर प्रवाह मुझे भी
केमल थपकी देता था,
त्पन-कथन तन-की मेरे
क्षण भर मे हर लेता था।

लहरों ने लोरिया सुनाकर
अमृत पिला अपनत्व दिया।
जीवन को जीवन्त बनाया
स्नेह दुलार ममत्व दिया।

ज्यों निष्काम कर्म योगिनियाँ
सतत कर्मरत रहती है,
अपने हित के लिए
कहीं भी पल भर नही ठहरती है।
निज ममत्व से सींच
धरा को रूपवान, गुणधाम किया,
कभी एक पल ठहर
न मेरी छाया मे विश्राम किया।

मुझे सुधा की धार पिलायी
खुद दूषण के सिन्धु पिये,
किन्तु दया का धर्म न छोड़ा
रही निरन्तर ओठ सिये।

करूणा क्षमा दया की बहती रही
त्रिवेणी उर-अन्तर,
प्रलयंकरी शक्ति ने जिसको
नष्ट न किया कभी तिलभर।

धैर्य क्षमा के साथ सदा
पर सेवा का है मन्त्र दिया,
अन्तर्मुखी साधना से
भर कर है मुझे स्वतन्त्र किया।

वही असीम आकाश
पिता-सा सब पर स्नेह लुटाता है,
लेकर सुधा सिन्धु से
मेरे ऊपर भी बरसाता है।

कहता- ऊँचे उठो
हमारी तरह न सीमाएँ मानो,
शक्ति अनन्त भरी है तुममें
जनो उसको पहचानो।

काल-पत्र पर अंकित कर दो
अपने यश क हस्ताक्षर,
युगों-युगों के लिए हो सके
जिसका हर अक्षर-अक्षर।

किन्तु कठिन तप किये बिना
परिणाम नहीं कुछ है होता,
व्यर्थ कामनाओं का बोझा
ही काहिल मन है ढ़ोता।

और कर्म की डोरी से
यदि मन का दृढ़ बन्धन कर दें,
महाजनो के प्रेरक पथ पर
मोड़ उसे पावन कर दे।

वह खग है मन, मुक्त गगन में
वो विहार करता रहता,
नवता की तलाश मे
अभिनव पंथ नित्य गढ़ता रहता।

मन वह बंजारा है
जिसका निश्चित कुछ भी लक्ष्य नहीं,
मिले जहाँ व्यापार
डगर वह चलता रहता नित्य नई।

मैं तो जड़ हूँ, मुझे
अचल रहने का है वरदान मिला,
बस सन्त्रास मिले है जग से
कहाँ मुझे उत्थान मिला?

काँटे हो या फूल
सभी को देते प्यार चले जाओ
कहता मुझसे पवन-
भेद का भाव न मन मे कुछ लाओ

पतझर हो या फिर वसन्त हो
भेद न करता पवन कभी,
सुखद कोमल स्पर्श निरन्तर
पाते नीरस सरस सभी।

राजा हो या रंक, मूर्ख हो
या दिग्गज हो, ज्ञानी हो,
हो उदार अति विनयी या फिर
बलोन्मत्त अभिमानी हो,

क्षिति, जल, पावक, व्योम, पवन
ये भेद नही रखते मन में
करते है बर्ताव सभी के
साथ एक-सा जीवन मे।

इन्ही पंचतत्वो से सीखे
जीवन के गुण परम पवित्र,
और चराचर का चितचिन्तन
करते हुए बन गया मित्र।

आँख खुली नव जीवन पाया
देख सहज निर्मल संचार
जागी भवना पावन मन मे
और हुआ जीवन समुदार।

जाग उठा संकल्प मनस में
पर सेवा मै करूँ सदा
कभी न पीडा़ मिली किसी को
सबका हो जीवन सुखदा।

जब से जन्मा हूँ, तब से तो
देता ही बस आया हूँ,
फिर भी मनुज हृदय से
अपनापन न अभी तक पाया हूँ

कभी फूल फल कभी छाल के
नित नूतन उपहार दिये,
मोहक मधुर गन्ध आपूरित
कलियों के श्रंगार दिये।

सघन लता के भवन सुगन्धित
मैनें सदा विशेष दिये,
ऋषियों की साधना सफल हो
ऐसे शुभ परिवेश दिये।

शीतल छाया देकर मैंने
जीवों को आराम दिया,
हारे थके पथिक को हर छण
शान्ति और विश्राम दिया।

ओषधीय गुण मेरे हरते रहे
रोग-दुख जीवन के,
बहा गंध के निर्झर मैंने
कितने दोष हरे मन के।

सुधा शन्ति हित शाककन्द
फल, पत्र विविध देता आया
स्वाहाकर सर्वसव, नाव
जीवन की मै खेता आया।

व्यर्थ हो गये सभी समर्पण
व्यर्थ गये बलिदान सभी,
आँसू या मुस्कान हमारी
नर ने देखी नहीं कभी।

वह तो स्वार्थ सिद्धि से आगे
कुछ भी देख नही पाता,
क्षणभर पाता सुख फिर दुख
के सागर मे गोते खाता।

संकट तो संकट है आखिर
छोटा हो या बहुत बड़ा
यही नियति का चक्र देखता
रहता हूँ मैं मौन खड़ा।

जाने कब मानव के उर में
सहज प्रेरणा जागेगी?
अन्तस की कलिमा न जाने
कब घबराकर भागेगी?

जागेगा अपनत्व प्र्रेम की
शाखाएँ पुाष्पित होंगी।
आशाओं के फूल खिलेगे
गन्ध नदी मे गति होगी।

जीवन के रहते तो मैंने
सब कुछ दिया सदा नर को,
और अन्त में शुष्क देह भी
कर दी अर्पण नश्वर को।

बना विभूति और घरती
माता के चरणों में आया,
माटी के कण-कण से मिलकर
सुख अनन्त मैंने पाया।

दिया अपनत्व एक बस
मुझको धरती माता ने,
जग से कैसै मिलता मुझको
लिखा न भाग्य विधाता ने।

करता रहा, कर रहा हूँ मैं,
और करूँगा सदा-सदा,
एक कामना परमेश्वर से
जगे मनुज मे मानवता।

हो अभिषेक मनुज के
मन का करूणा की धाराओं से,
तोड़ स्वार्थ की सीमाएँ सब
निकल सके तृष्णाओं से।

एक नेह की डोरी से
हो बँधा चराचर जग सारा,
गँूज उठे धरती से अमबर तक
पवित्र भाईचारा।

पुलक उठे सबके उर-अन्तर
सबके प्रति अपनत्व सरल
मानवता के सुन्दर सुर में
खिले प्रेम का दिव्य कमल।