भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पहले इनकी सुन लो! / तरुण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जरा पहले इनकी सुन लो!
इनकी भी सुन लो-
पीछे से
मेरा पल्ला पकड़कर,
राल टपकाते-से,
सतृष्ण नेत्रों से अपने कन्धे पर गर्दन लटका-
सुबह-साँझ
अपनी बाँहें फैला मुझे पुकारते हैं जो,
मुझे निहारते हैं जो-
जरा पहले इनकी सुन लो!

गन्धक, अग्नि, कण्टक-कंकड़, पत्थरों वाली
कठोर धरती को फोड़कर-
ये कोमल, ये सलोने, ये निगोड़े
मेरे लॉन की क्यारियों में
चहचहा, गहगहा, महमहा उठे हैं जो-
मेरा पीछा करते!
फटने को हुए-से कन्धारी दाड़िम-से यौवन वाली,
मांसल-गौर सुपुष्ट वक्षोजों वाली-
अप्सरियों-सी वयः सन्धिशील मदिर-दृष्टि कन्याओं के
प्रथम प्रणय-बालों से-
ये!

जरीदार, रंगीन व पारदर्शी!
दीपों की लौ के आकार से,
विवाहित भाल की रंगीन टिकुलियों से-बुँदियोंदार;
होली की पिचकारियों से छुटी धारों, फुहारों से-
ये!
मरकत-सी पत्तियों की गोद में व उनके काँधे झूमते-
किशमिशी, जाफरानी, सोसनी, मोरपंखी, गोमेदकी रंगों वाले-
ये!
रंगों का दंगा हो गया है, रे-
आज तो यह!
इनमें भीनी गंध समायी है-
मेंहदी रचित हथेलियों वाली सुहागिनियों के मदिर उनींदे
यौवन की!

खामखाह हर समय मेरे काम में
बाधा पहुंचाते हैं-ये
मानव-संस्कृति के निर्माण में प्रति पल सजग सक्रिय
मैं-संस्कृति का प्रहरी!

और ये मेरे पांव के रोड़े से बने रहते हैं
हर समय!
ये निठल्ले, आवारागर्द
कितने प्यारे ये कम्बख्त,
और मैं-कितना व्यस्त!

जरा पहले इनकी सुन लो!

1972