Last modified on 21 जुलाई 2019, at 21:49

पहले उलझन पाने की है / सोनरूपा विशाल

पहले उलझन पाने की है फिर उसको खोने के डर की।
जैसे जीने के उत्सव में बातें मरने के अवसर की।

मिट्टी के गुल्लक से तन में कितने सिक्के खरे खरे हैं
ये गिनती ही तय करती है भीतर कितने भरे भरे हैं

ये भारी पन कम करता है चिंताएं सारी अंतर की।

काशी के घाटों सी हलचल को उलझन समझें क्यों हरदम
दुख को समझें पर्वत सा क्यों सुख को दुख से आँकें क्यों कम

कोंपल भी तब आती है जब जाती है बारी पतझड़ की