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पहले की तरह अब उन्हें उल्फ़त नहीं रही / डी. एम. मिश्र
Kavita Kosh से
पहले की तरह अब उन्हें उल्फ़त नहीं रही
जिससे उन्हें था प्यार वो दौलत नहीं रही
बेटा तुम्हें कंधे पे बिठाकर था घुमाता
अब खाट से भी उठने की ताक़त नहीं रही
अब गाइये, बजाइये, मटकाइये ग़ज़ल
महफ़िल में मेरी कोई ज़रूरत नहीं रही
मोटर नहीं, महल भी नहीं क्या हुआ मगर
ऐसा नहीं ग़रीब की इज़्ज़त नहीं रही
यह आप की नहीं है ज़माने की है ये बात
जब हुस्न ढल गया तो वो चाहत नहीं रही
अब तो घरों में चाइना की झालरें लगें
बूढ़े चिराग़ की कोई क़ीमत नहीं रही