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पहले तो मिस्ले मह-ओ-अख़्तर थे हम / मधु 'मधुमन'
Kavita Kosh से
पहले तो मिस्ले मह-ओ-अख़्तर थे हम
उनकी हर इक सोच का मेहवर थे हम
वक़्त ने ऐसा सितम ढाया कि बस
एक पल में पाँव की ठोकर थे हम
आज वह रस्ता दिखाते हैं हमें
कल तलक जिनके लिए रहबर थे हम
हमको तो मिलनी ही थीं गुमनामियाँ
आख़िरश इक नींव का पत्थर थे हम
याद आए वक़्त-ए-हाजत ही उन्हें
जैसे कोई ताश के जोकर थे हम
ढल गए साँचे में सबके इस तरह
जैसे कोई मोम का पैकर थे हम
ज़िंदगी दुश्वार तो होनी ही थी
धूप तीखी और बरहनासर थे हम
जग को शायद इसलिए भाए नहीं
जैसे अंदर वैसे ही बाहर थे हम
चुप रहे ताउम्र ‘मधुमन‘ इसलिए
क्यूँकि फ़ितरत से वफ़ा-परवर थे हम