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पहले भीतर से दहूँ / शिरीष कुमार मौर्य

शिशिर के बीच
उम्र
अचानक बहुत-सी बीत जाती है
मेरी

कुछ शीत में
कुछ प्रतीक्षा में
मैं ढलता हूँ
पश्चिम में समय से पहले ही
लुढ़क जाता है
सूरज का गोला

और ऋतुओं से ज़्यादा
इस ऋतु में
वह लाल होता है
लिखने के बहुत देर बाद तक
गीली रहती है रोशनाई

वार्षिक चक्र में
ऐसी ऋतु एक बार आती है
जीवन चक्र में
वह आ सकती है
अनगिन बार

मैं जवान रहते-रहते
अब थकने लगा हूँ
इस शिशिर में
मेरी देह

प्रार्थना करती है
मेरी आत्मा तक पहुँचे ऋतु
शीत की
मुझे कुछ बुढ़ापा दे
कनपटियों पर केश हों कुछ और श्वेत
चेहरे पर दाग़ हों
भीतर से दहने के

इस तरह
जो गरिमा
शिशिर
अभी मुझे देगा
उसे ही तो
गाएगी
मेरी आत्मा
चैत में