पहले वो सिनेमाघर में मिली थीं / शहंशाह आलम
पहले वो सिनेमाघर में मिली थीं
जैसे मिलती हैं वनस्पतियां एक-दूसरे से
फिर वो पुस्तक मेले में मिलीं हुलसती हुईं
एक-दूसरे के कंधे पर हाथ धरकर
वो थीं एक झोंके की तरह
यहां से वहां
वहां से यहां
एक हिन्दी की व्याख्याता थीं किसी महाविद्यालय में
एक थीं पी-एच.डी. की छात्रा एक किसी संवैधानिक दफ़्तर में
एक अपने सौंदर्य-शास्त्र को विचारधारा में
बदलने को प्रयत्नरत थीं पुरुष समूहों में लगातार
वो परिकथाओं की परियां नहीं थीं न देवकन्याएं
उनका जीवन बल्कि एकांत और अकेलेपन से
था डरा हुआ बहुतों स्त्रियों की तरह
वो नाश्ते पर डरती थीं
वो बाथरूम में पार्क में
वो आंधी पानी से
डरती थीं अपने इर्द-गिर्द के सांपों डायनासौरों से
इसीलिए वो इस सदी की सुबह से
पिछली सदी की सांझ से भयभीत
एक-दूसरे के अलावे बड़े कवियों लेखकों
बड़े उद्योगपतियों फिल्म निर्माताओं राजनीतिज्ञों
से भी मिलती रही थीं बेबाक
और नामी आलोचकों से भी
वो स्वागत करती थीं सबका निर्विवाद
अपने-अपने वितान में
अपनी-अपनी धमनियों में
अपनी-अपनी सांसों में
अपने-अपने ज़ंग खाए समयों में
वो बिस्तर की सलवटों की आग में
जलाती थीं सब पुरुषों-महापुरुषों को
अपनी देह पर चूती हुई बर्फ के समुद्र-जाप से
कई-कई मठ कई-कई शिविर ढाती थीं
आज वो फिर मिल रही थीं
पहाड़ के इस एकांत में
इन चिंताओं को लेकर कि
उनके शरीर का ताप
कब तक बचा रहेगा
इस ख़त्म होते जाते जीवन में।