पहाड़ों के क़दों की खाइयाँ हैं / सूर्यभानु गुप्त
पहाड़ों के क़दों की खाइयाँ हैं
बुलन्दी पर बहुत नीचाइयाँ हैं
है ऐसी तेज़ रफ़्तारी का आलम
कि लोग अपनी ही ख़ुद परछाइयाँ हैं
गले मिलिए तो कट जाती हैं जेबें
बड़ी उथली यहाँ गहराइयाँ हैं
हवा बिजली के पंखे बाँटते हैं
मुलाज़िम झूठ की सच्चाइयाँ हैं
बिके पानी समन्दर के किनारे
हक़ीक़त पर्वतों की राइयाँ हैं
गगन-छूते मकां भी, झोपड़े भी
अजब इस शहर की रानाइयाँ हैं
दिलों की बात ओंठों तक न आए
कसी यूँ गर्दनों पर टाइय़ाँ हैं
नगर की बिल्डिंगें बाँहों की सूरत
बशर टूटी हुई अँगड़ाइयाँ हैं
जिधर देखो उधर पछुआ का जादू
सलीबों पर चढ़ीं पुरवाइयाँ हैं
नई तहज़ीब ने ये गुल खिलाए
घरों से लापता अँगनाइयाँ हैं
मुतास्सिर लोग यूँ हैं रोटियों से
ख़यालों तक गईं गोलाइयाँ हैं
यहाँ रद्दी में बिक जाते हैं शाइर
गगन ने छोड़ दी ऊँचाइयाँ हैं
कथा हर ज़िंदगी की द्रोपदी-सी
बड़ी इज़्ज़त-भरी रुस्वाइयाँ हैं
जो ग़ालिब आज होते तो समझते
ग़ज़ल कहने में क्या कठिनाइयाँ हैं