भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पहाड़ों पर अकेले / महेश सन्तोषी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

इस बार पहाड़ों पर अकेले ही आये?
अपना प्यार नीचे कहाँ छोड़ आये?
ढलानों पर प्रश्न बार-बार गूंजता रहा,
पर अनमनी घाटियों से उत्तर नहीं आये।

तुम्हारे अभावों को पंख मिल गये,
कई मनचाही ऊंचाइयाँ मिल गईं,
हमारा धरातल सिमटता रहा,
साथ में अब परछाइयाँ तक नहीं।

बिछड़ता-सा लगा रास्ते का हर मोड़,
पहले जैसा नहीं लगा हमारा पहाड़ों पर आना,
परिचित पगडण्डियों ने भी मुंह मोड़ लिए,
सभी को अखरा हमारा अकेला आना।

जो बड़ा वक्त था, वो वादियों में डूब गया,
बड़े दिन थे वे जो फिर लौटकर नहीं आये।
...उत्तर नहीं आये।

ओस चमकी थी थोड़ी, बर्फ थोड़ी चमकी थी,
अजब-सी धूप थी जो, पहाड़ों पर चमकी थी।
उम्र फूलों की कौन देखता है, गिनता है?
फूलों-सी जितनी ज़िन्दगी थी, तुमसे थी।

कितना पत्थर है, कितना बर्फ, कितना पानी है,
किसने देखा है, भीतर से, पहाड़ों का दिल?
रूठ कर बैठी रहीं दूर पर दोपहरियाँ,
सांझ के पहिले ही घिर आये अंधेरे बादल।

उम्र थोड़ी-सी कभी छोड़ी थी इन पहाड़ों पर
पर ढलानों तक हम ठहर नहीं पाये।
....उत्तर नहीं आये।