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पहाड़ों प उतरती शाम की बे-चारगी देखें / प्रकाश फ़िकरी
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पहाड़ों प उतरती शाम की बे-चारगी देखें
दरख़्तों पर लरज़ कर बुझ रही हैं आख़िरी किरनें
बहुत ही सर्द है अब के दयार-ए-शौक़ का मौसम
चलो गुजरे दिनेां की राख में चिंगारियाँ ढूँडने
भला पत्थर भी रोते हैं कभी शीशे के ज़ख़्मों पर
अगर होता है ऐसा तो हिसाब-ए-दोस्ताँ भूलें
सवाद-ए-शाम में ढूँडे कोई मानूस सा चेहरा
हवा की रह गुज़र पे एक नन्हा सा दिया रक्खें
कहाँ अल्फ़ाज देते हैं हमारा साथ अब ‘फिक्री’
कहे अशआर सब-बे-जाँ हुईं बे-कार सब ग़ज़लें