पहाड़ों वाली गली / महेश सन्तोषी
अगर हम अपना सर
पहाड़ों से ऊँचा रखकर नहीं रह सके,
तो इसमें पहाड़ों की क्या गलती?
ज़िन्दगियाँ ऐसे ही नहीं छू लेती ऊँचाईयाँ
सकेर दिलों से होकर नहीं जाती,
पहाड़ों वाली गली!
नदी इसलिए नदी है कि
वह प्रवाहित जल की एक जीवित अभिव्यक्ति है,
स्थिरता नदी की नियति नहीं है,
वह तो प्रवाहों से ही जीती-मरती है,
एक दिन हमने एक पहाड़ से पूछा,
‘क्या आदमी ने तुमसे कभी भी, कुछ भी नहीं सीखा?’
वह बोला, ‘हमने तो उसके लिए सहस्रों नदियाँ बहा दीं,
उसकी सन्तति तक को पीढ़ी-दर-पीढ़ी सींचा,’
फिर हमने एक दिन एक नदी से पूछा,
‘क्या अनदेखी अनसीखी रह गयी
तुम्हारे त्याग की दिन-रात प्रवाहित गीता?’
वह बोली, ‘किसी सूखी नदी की रेत से पूछना,
आदमी ने, हमसे कुछ सीखा कि नहीं सीखा?
सदियों से पहाड़ और नदियाँ
हमें ऊँचाईयों और गहराईयों के सबक देते रहे,
ये बात और है कि अब सबक लेने वाले ही,
कहीं बाकी नहीं रहे!