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पहाड़, जंगल, जलस्रोत और अपना प्यार / सुरेन्द्र स्निग्ध
Kavita Kosh से
यहाँ मैं हूँ, तुम हो, और कोई नहीं
यहाँ पहाड़ हैं, जंगल हैं, जगह-जगह फूटने वाले --
हमारे प्यार के नन्हें-नन्हें जल के सोते हैं ।
यहाँ हैं मेरी कमज़ोर बाँहें
और इसमें लिपटी हो तुम
एक कमज़ोर, एक बीमार लड़की ।
चलो थोड़ा ऊपर चलें, इस पहाड़ पर
देखें इसकी और भी ऊँचाई
इन ऊँचाइयों पर जगह-जगह मिल रही है
तुम्हारे प्यार की सघन और शीतल छाँह
थोड़ी देर बैठेंगे हम यहाँ
सुनेंगे तुम्हारी कमज़ोर और टूटती आवाज़ में
जीवन का मधुरतम और उदास गीत
थोड़ा और चलेंगे ऊपर
एक क्षण को झटक देंगे जीवन की उदासी
एक क्षण को सान्द्र करेंगे
जंगलों की ख़ामोशी।
घोलेंगे एक दूसरे के होंठों में
खोजेंगे एक दूसरे की साँसों में
जीवन का नया अर्थ
जीवन का नया संगीत