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पहाड़ अब भी बूढ़े थे / रमेश आज़ाद

Kavita Kosh से
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शहर से हलकान
सुकून के लिए परेशान
बना फिर फार्महाउस
अपमानित हुए गांव के लोग।

बहुरंगी परिवेश की तलाश में
पहाड़ी कस्बे में आई
धन की बाढ़,
पहाड़ हो गए वीरान
गायब हुआ जवान खून
मैदान तक बह चुका था,
पहाड़ अब भी बूढ़े थे
पर्यटकों की सेवा के लिए
जुटे थे वृद्ध।

बच्चियां लड़कियां
बुक्का फाड़े खड़ी थीं पहाड़ पर
वे भूल गईं थीं
अपनी शक्ल
अपना शृंगार

उधर सरकारेआला भी
पहुंची थी पहाड़ी आदिवासियों के बीच
आदिवासियों के गांव-घट
डूब-क्षेत्र में घिर गए
पशु-पक्षी अभयारण्य में समा गए
खो गए सब
सामा-चकेवा, आल्हा, बिरहा।

लगातार
दूर-दूर तक
गांव-गांव
घर-घर
पहाड़ जंगल तक में
प्रवेश कर गईं रियासतें
प्रजातंत्र उरुज पर है
अब राष्ट्रीय कीर्तन का पाठ है
बैंक हो गए हैं
प्रभुवर्ग के सुलभ इंटरनेशनल
हर किसी की जेब में
खाते ही खाते हैं।

इधर
धरती के बहुसंख्यक
अभी भी
लोक में रहकर
परलोक की चिंता में दुबले होते जाते हैं
रटते हैं-वोट वोट वोट!!
सलाम करते हैं
तिरंगे को
गाते हैं
जन गण मन
अधिनायक जय हे।