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पहाड़ और पगडण्डियाँ / आरती मिश्रा

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यह सब अनायास ही हुआ
रास्ते की तलाश में भटकती मैं
पगडण्डियों से होती हुई
इस विशालकाय चट्टान पर आ खड़ी हुई

नीचे झाँककर देखा
शहर, जैसे कोई भयानक क़िस्सा
शहर के लोग, उस क़िस्से के असली किरदार
पहली बार उनसे डर न लगा
आज इस शहर के वैभव ने मुझे बिल्कुल नहीं डराया

चींटियों से रेंगते लोग और
टूटी पेंसिल के धब्बेदार स्केच जैसे शहर को देखकर
मन में जुगुप्सा जगी
आज तक के जिए मेरे डरों और बदहवासियों को यादकर
ख़ुद पर तरस आया

यहाँ इस काली चट्टान पर खड़े हो
मेरे भय और वे चिन्ताएँ
जो मेरी नज़रों को शक की सुइयाँ बना
जहाँ तहाँ चुभो देती थीं
जो बार-बार दरवाज़े की कुण्डी टोहने हड़बड़ाकर उठ बैठती थीं
जो आधी रात तक आँखों से दूर रखती थीं नींद को
वे आशंकाएँ विलीन हो गईं
यह शहर, अब मेरे गाँव के एक मुहल्ले में तब्दील हो चुका है