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पहाड़ का होना / आरती मिश्रा
Kavita Kosh से
बस अभी अभी सोचा-
पहाड़ बन जाऊँ
और मेरी देह चट्टान में तब्दील हो गई
यहाँ सोचना शुरू किया
वहाँ खर-पतवारों की नाना प्रजातियाँ उग आईं
सोचना ही पर्याप्त है शायद बदलने के लिए
जैसे कि मेरी आँखों के रंग में
धूसर खुरदुरापन फैल गया है
इस चट्टान बनी देह की असलियत जानने के लिए
खरोंचा
सच, मेरे नाखूनों में ख़ून की बून्दें नहीं
धूल के कण भर गए
कठोर बेरंग पहाड़-सा होना और
धरती की नजाकतें भूल-भालकर
देह पर उगा लेना काँटे
पहाड़ जैसा ही एक प्रश्न है