भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पहाड़ की औरतें - 2 / स्वाति मेलकानी
Kavita Kosh से
शहरों में रहते-रहते
मान बैठे तुम
कि अब नहीं रही पहाड़ में
घाघरा पहने
कमर से सर तक घोती बाँधे
औरतें...
चार दाँतों में दरांती दबाए
बीस अंगुलियों से
झुकी धरती के कोण नापती
सूखे पहाड़ में जीवन के तिनके समेटती
औरतें...
उनकी फूलती साँसों से
उठता है बवडंर...
आज शहर में कुछ खराब है मौसम
और तुमने हड़बड़ा कर
बन्द कर लीं खिड़कियाँ...