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पहाड़ की खेती और माँ / महेश चंद्र पुनेठा

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लगी हूँ दिन-रात
लगी हूँ वर्षों से
जैसे गाड़-गधेरों में बहता पानी
जैसे इन पहाड़ियों और घाटियों के बीच चलती हवा
नहीं मिला पीठ सीधी करने का वक़्त भी
बहुत हो गया अब
सिर भी पैरों को मिलने आया

होश भी नहीं संभाला था ठीक से
उससे भी पुराना है इस मिट्टी से नाता
अपने से अधिक इस मिट्टी को जानती हूँ
(इसके रूप-रंग-गंध को
इसकी ख़ुशी और उसके रुदन को
इसकी ज़रूरत को )

रौखड़ भी कमता किया
दलदल में भी डूबी रही
चिलकोई घाम में तपी
चौमासी झड़ में भीगी
ओस-तुस्यार की नहीं की परवाह कभी
रक्त-हड्डी-माँस गलाया सभी
खाए-अधखाए घूमती रही जातरे की हथिनी-सी

पानी कहाँ
आँसू-खून-पसीने से सींची
पूरा परिवार जुता रहा अपनी-अपनी तरह से
बच्चे नहीं कर पाए ठीक से पढ़ाई
बुति के दिनों तो कम ही हो पाता स्कूल जाना उनका
चाहे-अनचाहे
खेती-बाड़ी के काम ही उनके खेल बन गए

खीजते रहते थे बच्चे खूब
फिर भी लगे रहते मेरे साथ सभी
पर फ़सल
कभी अकाल ने सुखाई
कभी ओलों ने मारी
कभी जंगली जानवरों ने खाई
बीज भी मुश्किल से रख पाई
सब ठीक-ठाक भी रहा तो
आधे साल भी परिवार का पेट नहीं भर पाई

अब तो और भी ख़राब हाल हैं
बढ़ गया है जंगली जानवरों का आतंक
गुन-बानर तो भीतर तक ही घुस आते हैं
बीज उजड़ चुका है अपना
ब्लाक के भरोसे रहना ठैरा
बिन यूरिया के कुछ होता नहीं
हल-बैल अपने हाथ हुए नहीं

कभी सोचती हूँ बहुत हो गया अब
चली जाऊँ बड़े के साथ शहर
बहुत कहता है-माँ आ जा यहाँ
रूखी-सूखी जैसी भी है साथ मिलकर खाएंगे
दुःख-बीमार देखभाल / दवा-दारू भी हो जाएगी

खूब कर दिया है ज़िंदगी भर
अब थोड़ा आराम कर
फिर हूक-सी उठती है इक
क्या कहेगी यह मिट्टी
हारे-गाड़े काम सराया जिसने

कैसे छोड़ चली जाऊँ उसे
बचपन से अब तक जिसके साथ रही
मेरे आँसू-खून-पसीने की गंध बसी
कैसे रहूँगी इस सबके बिना शहर
पुरखों की ज़मीन
बंजर अच्छी नहीं दिखती
हरे-भरे खेतों के बीच बंजर ज़मीन

मज़ाक उड़ाएँगे
भाई-बिरादरी के लोग भी
नहीं-नहीं...

जमीन का बंजर रहना अपशगुन माना जाता है
और कुछ न सही
मन तो लगा रहता है इसके साथ
इधर-उधर चलना-फिरना हो जाता है
वहाँ तो अभी से घुल जाऊँगी

क्या ज़िंदगी है पिजड़े में बंद पंछी की
पंख भी पूरे फड़फड़ा नहीं पाता ।
नहीं-नहीं मैं यहीं ठीक हूँ...।