भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पहाड़ के शिखर पर / सुनील गंगोपाध्याय / सुलोचना

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

बहुत दिनों से ही मुझे एक पहाड़ ख़रीदने का मन है ।
लेकिन पहाड़ कौन बेचता है, यह मैं नहीं जानता ।
यदि उससे मिल पाता,
क़ीमत पर नहीं अटकता मामला ।
मेरे पास अपनी एक नदी है,
वही दे देता पहाड़ के बदले ।

कौन नहीं जानता, पहाड़ की बनिस्पत नदी की ही क़ीमत होती है ज़्यादा ।
पहाड़ स्थिर रहता है, बहती रहती है नदी ।
फिर भी मैं नदी के बदले पहाड़ ही ख़रीदता ।
क्यूँकि मैं ठगा जाना चाहता हूँ ।

नदी को भी हालाँकि ख़रीदा था एक द्वीप के बदले में ।
बचपन में मेरा एक छोटा सा,
साफ़-सुथरा द्वीप था ।
वहाँ थीं असंख्य तितलियाँ ।
बचपन में द्वीप था मुझे बेहद प्रिय ।
मेरी युवावस्था में द्वीप मुझे
आकार में छोटा लगने लगा । प्रवाहमान सुव्यवस्थित तन्वी नदी मुझे ख़ूब पसन्द आई ।
दोस्तों ने कहा, इतने छोटे
एक द्वीप के बदले में इतनी बड़ी
एक नदी मिली ?
क्या ख़ूब जीता है माँ क़सम  !
तब मैं विह्वल हो जाता जीतने की ख़ुशी में ।
तब मैं सचमुच ही नदी से प्यार करता था ।
नदी मेरे कई सवालों का जवाब देती ।
जैसे , बताओ तो, आज
शाम को बारिश होगी या नहीं ?
वह कहती, आज यहाँ दक्षिणी गर्म हवा है ।
केवल एक छोटे से द्वीप पर होगी बारिश,
किसी त्यौहार की तरह प्रबल बारिश !
मैं उस द्वीप पर अब नहीं जा सकता,
उसे मालूम था ! सभी को मालूम है।
फिर से नहीं लौटा जा सकता है बचपन में ।

अब मैं एक पहाड़ ख़रीदना चाहता हूँ।
उस पहाड़ के पाँव के पास
होगा गहन अरण्य, मैं पार कर लूँगा उस अरण्य को, उसके बाद केवल असहज
कठिन पहाड़ ।
बिल्कुल शीर्ष पर, सिर के
बहुत पास आकाश, नीचे विपुला पृथ्वी,
चराचर में तीव्र निर्जनता ।
कोई भी नहीं सुन सकेगा मेरा कण्ठ - स्वर वहाँ ।
मैं भगवान में विश्वास नहीं करता, वह मेरे सिर के पास सर झुकाकर खड़े नहीं होंगे ।
मैं केवल दसों दिशाओं को सम्बोधित कर कहूँगा,
हर मनुष्य ही अहंकारी है, यहाँ मैं हूँ अकेला —
यहाँ मुझे कोई अहंकार नहीं है।
यहाँ जीतने के बजाय, क्षमा माँगना अच्छा लगता है ।
हे दसो दिशाओ, मैंने कोई ग़लती नहीं की ।
मुझे क्षमा कर दो ।

मूल बंगाली से अनुवाद : सुलोचना

लीजिए, अब बंगाली भाषा में यही कविता पढ़िए
             সুনীল গঙ্গোপাধ্যায়
                 পাহাড় চূড়ায়

অনেকদিন থেকেই আমার একটা পাহাড় কেনার শখ।
কিন্তু পাহাড় কে বিক্রি করে তা জানি না।
যদি তার দেখা পেতাম,
দামের জন্য আটকাতো না।
আমার নিজস্ব একটা নদী আছে,
সেটা দিয়ে দিতাম পাহাড়টার বদলে।

কে না জানে, পাহাড়ের চেয়ে নদীর দামই বেশী।
পাহাড় স্থানু, নদী বহমান।
তবু আমি নদীর বদলে পাহাড়টাই
কিনতাম।
কারণ, আমি ঠকতে চাই।

নদীটাও অবশ্য কিনেছিলামি একটা দ্বীপের বদলে।
ছেলেবেলায় আমার বেশ ছোট্টোখাট্টো,
ছিমছাম একটা দ্বীপ ছিল।
সেখানে অসংখ্য প্রজাপতি।
শৈশবে দ্বীপটি ছিল আমার বড় প্রিয়।
আমার যৌবনে দ্বীপটি আমার
কাছে মাপে ছোট লাগলো। প্রবহমান ছিপছিপে তন্বী নদীটি বেশ পছন্দ হল আমার।
বন্ধুরা বললো, ঐটুকু
একটা দ্বীপের বিনিময়ে এতবড়
একটা নদী পেয়েছিস?
খুব জিতেছিস তো মাইরি!
তখন জয়ের আনন্দে আমি বিহ্বল হতাম।
তখন সত্যিই আমি ভালবাসতাম নদীটিকে।
নদী আমার অনেক প্রশ্নের উত্তর দিত।
যেমন, বলো তো, আজ
সন্ধেবেলা বৃষ্টি হবে কিনা?
সে বলতো, আজ এখানে দক্ষিণ গরম হাওয়া।
শুধু একটি ছোট্ট দ্বীপে বৃষ্টি,
সে কী প্রবল বৃষ্টি, যেন একটা উৎসব!
আমি সেই দ্বীপে আর যেতে পারি না,
সে জানতো! সবাই জানে।
শৈশবে আর ফেরা যায় না।

এখন আমি একটা পাহাড় কিনতে চাই।
সেই পাহাড়ের পায়ের
কাছে থাকবে গহন অরণ্য, আমি সেই অরণ্য পার হয়ে যাব, তারপর শুধু রুক্ষ
কঠিন পাহাড়।
একেবারে চূড়ায়, মাথার
খুব কাছে আকাশ, নিচে বিপুলা পৃথিবী,

চরাচরে তীব্র নির্জনতা।
আমার কষ্ঠস্বর সেখানে কেউ শুনতে পাবে না।
আমি ঈশ্বর মানি না, তিনি আমার মাথার কাছে ঝুঁকে দাঁড়াবেন না।
আমি শুধু দশ দিককে উদ্দেশ্য করে বলবো,
প্রত্যেক মানুষই অহঙ্কারী, এখানে আমি একা-
এখানে আমার কোন অহঙ্কার নেই।
এখানে জয়ী হবার বদলে ক্ষমা চাইতে ভালো লাগে।
হে দশ দিক, আমি কোন দোষ করিনি।
আমাকে ক্ষমা করো।