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पहाड़ जैसे / अनिता भारती
Kavita Kosh से
जब हाथ में
टूटे काँच की कीर्च गड़ जाती है
तब उसमें से धीरे-धीरे
टीसता है दर्द
जब उसे छेड़ो तब
और जोर से टीसता है
कभी तेज
तो कभी मध्यम
लेकिन
अगर मन में गड़ जाये
वो कचीली कीर्च
तो न केवल टीसता है
बल्कि ऐसा दर्द उठता है
जैसे हजारों पहाड़
दरक गये हो अपनी जगह से
क्या रिश्ते पहाड़ जैसे
नहीं होते?
खड़े रहे तो खड़े रहे
दिन प्रतिदिन, सालोंसाल
उगाते रहे
हरी नरम दूब, पेड़ और फल-फूल,
रंग-बिरंगे मनमोहक पक्षी
दरक जाए
तो पैदा कर दे
निपट बियाबान।