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पहाड़ पर / पृथ्वी: एक प्रेम-कविता / वीरेंद्र गोयल
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उन जगहों पर
बार-बार गया
जहाँ चाहता था रहना
पर दो दिन में ही
साँस फूलने लगती
इंतजार ना किया
खुद के बदल जाने का
पत्थर में ढल जाने का
बस लुढ़कता-पुढ़कता
नदी के बहाव के साथ
लौट आता था मैदान में
फिर से बादल बन
बरस जाने को
बर्फ की तरह गिर जाने को
उन जगहों पर
बार-बार गया
जहाँ रहना चाहता था
पर रह नहीं पाया
जब भी गया
लौटकर ही आया
खुद में खोकर
खुदी को पाया।