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पहाड़ से मैदान / मंगलेश डबराल

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मैं पहाड़ में पैदा हुआ और मैदान में चला आया
यह कुछ इस तरह हुआ जैसे मेरा दिमाग पहाड़ में छूट गया
और शरीर मैदान में चला आया
या इस तरह जैसे पहाड़ सिर्फ़ मेरे दिमाग़ में रह गया
और मैदान मेरे शरीर में बस गया।

पहाड़ पर बारिश होती है बर्फ़ पड़ती है
धूप में चोटियाँ अपनी वीरानगी को चमकाती रहती हैं
नदियाँ निकलती हैं और छतों से धुआँ उठता है
मैदान में तब धूल उड़ रही होती है
कोई चीज़ ढहाई जा रही होती है
कोई ठोक-पीट चलती है और हवा की जगह शोर दौड़ता है।

मेरा शरीर मैदान है सिर्फ़ एक समतल
जो अपने को घसीटता चलता है शहरों में सड़कों पर
हाथों को चलाता और पैरों को बढ़ाता रहता है
एक मछुआरे के जाल की तरह वह अपने को फेंकता
और खींचता है किसी अशान्त डावाँडोल समुद्र से।

मेरे शरीर में पहाड़ कहीं नहीं है
और पहाड़ और मैदान के बीच हमेशा की तरह एक खाई है
कभी-कभी मेरा शरीर अपने दोनों हाथ ऊपर उठाता है
और अपने दिमाग़ को टटोलने लगता है।