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पहिए जब लीक को काटते हैं / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
बैल घुटनों पड़ जाते हैं
खुरों की नोकें मिट्टी में गड़ जाती हैं
जुए की मोटी रस्सियों का खिंचाव
गुस्सैल मुट्ठियों की तरह कसमसाने लगता है
जुआ गर्दन में गड़ता हुआ
टाँट की जड़ तक पहुँच जाता है
नथुनों की तेज़ हवा
धूल उड़ाने लगती है
सींग अनजाने क्षितिज की ओर
भाले की तरह तन जाते हैं
बैल की सारी फीठ समतल हो जाती है
कितना ज़ोर पड़ता है उस वक़्त
पहिए जब लीक को काटते हैं...