भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पहिए / केदारनाथ अग्रवाल

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पहिए
चलते हैं
चलते-चलते
फिर वहीं पहुँचते हैं
इंतजार में जहाँ
चल पड़ने को
तुले रहते हैं
टूटते-टूटते जब तक
टूट नहीं जाते
भूगोल की रगड़ खाते
समय से टकराते

रचनाकाल: ०५-०८-१९७१