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पहिला सर्ग / कच देवयानी / मुकुन्द शर्मा

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देवासुर-संग्राम

देवासुर संग्राम सतत हल सत्ता के लड़ाई,
उहे ले लड़ रहल हें आइयो भाई-भाई।
सत्ता हे स्वर्ग-सुख, भोग-भण्डार,
एकरे पावे ले सब कर रहल हें मार।
जनहित के भाव तो केवल बहाना हे,
अपन-अपन स्वारथ ले सब ताना-बाना हे।
देवालय में सुख हे, सगरो सुगंध,
देवराज सत्ता के मद में हथ अंध।
कजै राजरंग हे कजै चले नाच,
धरा के तपस्वी के कजै चले जाँच।
निरख रहला देवगन नारी के सूरत,
कोय नय निहारे हे मंदिर के मूरत।
देवता विलासी सुख भोगी सब बनला,
दूर होली तहिए से देवी सर्वमंगला।
देवता जब बन गेला कामना-भिखारी,
इन्द्रदेव भी बनला बड़ा अहंकारी।
सुख के शय्या पर बितो लगल रात,
गुप-चुप करो लगल मघवा गलबात।
स्वर्ग मंे करे के हय नय कोय काम,
देवता निठल्ले सब सुबह से शाम।
असुर सब मंे धरती पद हल बड़ मेल,
साहस और शक्ति से करे बड़ी खेल।
उहे असुर हे जे धरती पर परधनहारी,
उहे असुर हे जे धरती पर अत्याचारी।
उहे असुर हे जे भाई के धन हड़पे हे,
उहे असुर हे जे तृषा लोभ से जे तड़पे हे।
उहे असुर हे जे परपीड़ा के विसवासी,
उहे असुर हे माता के जे सत्यानासी।
चोरी, बेईमानी से जे धन करे हे अर्जन,
उहे असुर हे माय-बाप के करे जे बर्जन।
झूठ-फरेबी के दिनरात करे जे चिन्तन,
पर पीड़ा के जे दिनरात करे हे मंथन।
माय-बाप के छोड़ बुढ़ापा में जे भागे,
जे केवल अप्पन सुख ले समाज के त्यागे।
उहे असुर हे जे भाई से करे बेइमानी,
उहे असुर हे जे माय-बहिन के छोड़े जे प्राणी।
जे हिंसा, आतंक, अपहरन के हे भागी,
सत्तासुख, धनसंग्रह, कालाधन के दागी।
चोर, लबार, चरित्रहीन जतना व्यभिचारी,
उहे असुर हे सम्प्रदाय-हिंसारत भारी।
परनिंदक, परधनहारी, बस गाल बजावे,
जे दोसर के लूट खजाना निज घर लावे।
शील हरण जे करे, साधु बन जे भरमावे,
सम्पत्ति जमा करे जे अति उतपात माचवे।
उहे असुर हे पढ़ लिखके जे बने स्वारथी,
डगरहीन जे रथ हांके ऊ नय सारथी।
राजनीति जे करे आत्मसुख केवल पावे,
गाँव-नगर में सम्प्रदाय दंगा भड़कावे।
दुश्चरित्र, जनशोषक जे स्वधर्म के निंदक,
जे समाज, संस्कृति, मर्यादित पथ के भंजक।
उहे असुर हे कामकीच ले मारामारी,
उहे असुर हे मानव तन के जे व्यापारी।
तस्कर मादक-निशा, सूदखोरी के धंधा,
माय-बाप के श्राद्ध न शव के दे जे कंधा।
मनुज रूप में उहे असुर हे बड़का भारी,
युग-युग से ऊ बनल आ रहल अत्याचारी।
सत्यव्रती जे दृढ़संकल्पी, मानव पर उपकारी,
जीवजंतु के जे हित चिंतक, जे हे पर दुखहारी।
जे भुक्खल के अन्नदान दे, प्यास के दे पानी,
अस्पताल, इस्कूल बनावे, उहे हे बड़का दानी।
जे संकट से सदा उबारे, धर्माचरण निरंतर,
पर सेवाहित आत्म समर्पित, शुद्ध परम अभ्यंतर।
उहे मनुज हे बड़ा देवता, उहे धर्म के ज्ञाता,
अपना भाग्य संवारे जे ऊ सबसे बड़ा विधाता।
जे परदोष न देखे कबहूँ, परनिंदा से दूर,
परमशांत जे हे संतोषी, देव-मनुज में सूर।
मात-पिता के जे श्रद्धा दे उनका दे आराम,
उहे देवता हे समाज के ओकरे बड़का नाम।
जे जमीन के जोते-कोड़े, उहे नया भगवान,
कल कारखाना काम करे जे उहे देव इंसान।
जे नारी के मर्यादा दे, श्रद्धा दे जे आदर,
उहे धरा के बड़ा देवता भाव भरल हे बादर।
शांति, प्रेम, सद्भाव लबालब से जे उमड़ल प्रानी,
हम मानो ही उहे आज के बड़ा देवता प्राणी।
जे बीमार के दवा दान दे वस्त्रहीन के वस्त्र,
हिंसा से जे त्राण दिलावे हे हे बड़का अस्त्र।
हरिजन, गिरिजन, वनवासी के जे असली उपकारक,
उहे देवता हे समाज के दलित वर्ग उद्धारक।
नस्लभेद के परम विरोधी, जाति-पांति के भंजक,
बेटा-बेटी के समान माने जेहे गृह-गुंजक।
मातृभूमि के परमपुजारी, जे सीमा के प्रहरी,
नया देवता ऊ समाज के गाँव बसे या शहरी।
जे समानता के विश्वासी, मनुज-राग के गायक,
उहे देवता हे समाज के उहे लोक के नायक।
धरती पर से दूर है एत्ते ऊ कैसन संन्यासी।
अहंकार से जे पागल हे जे कामी अपहर्ता,
निरपराध के धन जे लूटे जे कुमार्ग पद धरता।
सबके सब ई दैत्य असुर हे, उत्पीड़क संसार,
एकरा से जे युद्ध करे हे उहे संत हे भारी।
देव दनुज में चलल आ रहल बहुत रोज से युद्ध,
देव दनुज हे वृत्ति देह के, कभी शुद्ध या क्रुद्ध।
विषपरवा हल दैत्यराज ऊ ताकत अपन बढ़ैलक,
धरतीधन ऊ खूब बढ़ैलक राक्षस सैन्य बनैलक।
देवलोक पर चढ़ल एक दिन सबके दूर भगैलक,
हरा देलक ऊ इंद्रदेव के, इन्द्रासन के पैलक।
रागरंग में लीन भेल सत्ता के मद से चूर,
सभे देवता ओकरा डर से नुकला जाके दूर।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश के मन में चिन्ता व्यापल,
विषपर्वा सत्ता हथिऐलक, नाम हे छापल।
जतना राक्षस मरल, सभे फेर जीयल जागल,
बचल देवता समरांगन से रहला भागल।
जिए न पैलका जे सब देवता भेला हताहत,
सब निराश हथ, चिंता में सबहे हथ आरत।
कैसे बचत देव संस्कृति अब शंका मन में,
परामर्श हो रहल परस्पर देवतागण में।
गुरु ब्रहस्पति हला देवता कुल-गुरु ज्ञानी,
हला महत् आचार्य अपन युग के नव वाणी।
कच उनकर हल तरुणपुत्र, मेधावी सुन्दर,
उहो ज्ञान के ज्ञाता हल, विद्या के समंदर।
गुरु से विनती करो सभे कच से जा बोलो,
अब चुप रहो न देवकार्य हित अंतर खोलो।
कच गुरु शुक्र पास जाकर संजीवनी जाने,
राक्षस-गुरु के कच भी अपना नव गुरु माने।
जे विद्या से शुक्र जिआवो हका असुर सब,
उहे संजीवन विद्या सीखे कच जाकर अब।
देव प्रतिनिधि ज्ञानी गुरु के पास आ गेला,
मंत्र-जाप गुरु कर रहला हल प्रातः बेला।
खुलल आँख सामने दिखाई पड़ल देवता,
गुरु ज्ञानी सबके स्वागत के देलका नेवता।
पूछे लगला सबके आवे के ऊ कारण,
भयाक्रांत हम सबके भय के करो निवारण।
शुक्राचार्य असुर गुरु हथ संजीवन ज्ञाता,
देव-असुर-संग्राम, जिआवथ असुर विधाता।
अपन पुत्र कच के दा संजीवन जाने ले,
शुक्राचार्य पास भेजो विद्या आने ले।
बड़ा कठिन है काम देवता, शुक्र मनाना,
संजीवनी विद्या है उनकर बड़ा खजाना।
हमर पुत्र के संजीवनी ऊ कच के दूर भगैता,
कच संजीवन-विद्या सोचो कैसे पइता।
मगर देवता जब हठ कैलका गुरु मानलका,
अपन पुत्र के देवकार्य ले तभी बोलैलका।
पिता देवता के प्रणाम कच कैलक झुकके,
आज्ञा पूज्य पिता दा बोलल कच कुछ रुक के।
गुरु बृहस्पति कचके तब सब हाल बतैलका,
शुक्राचार्य पास जाय के राह सुझैलका।
कचतों शुक्राचार्य पास जा गुरु-दीक्षा ला,
संजीवन सीखो सुर-हित बड़का शिक्षा ला।
हारल हथ देवता सभे में जीवन लावो,
जत्ते दिन में होय संजीवन विद्या पावो।
हर्षित होला देवता सुनके कच के भी आशीष मिलल,
चरण वंदना करके कच गुरु शुक्र ज्ञान हित दूर चलल।
सोच रहल कच समर सदा से सत्यानाशी,
शांति सदा से देव दनुज नर के संहारक,
संस्कृति, कला विकास पंथ के शांतिक तारक।
अहंकार सब राज बढ़ावे ले हे झगड़ा,
सब दिन से आ रहल चलल ई बड़का रगड़ा।
युद्ध महामारी हे हे भूकम्प भयंकर,
देश मनुज संहार हो रहल हें प्रलयंकर।
रोके हे विकास के रथके खंदक खाई,
कटे मरे हे तरुण रो रहल मेहरी माई।
उजड़ रहल हें गाँव आर घर खेती बारी,
त्राहि-त्राहि कर रहल युद्ध से सुर संसारी।
अस्त्र-शस्त्र के तैयारी ले खुलल खजाना,
धरती पर हे भूख-अशिक्षा मिले नै खाना।
निरपराध, बालक, नारी-नर मारल जाहे,
धन सम्पत्ति बरबाद हो रहल बोलो काहे।
शहर-गाँव जल रहल युद्ध तो बड़ी आग हे,
बंजर धरती बनल न कज्जै प्रेमराग हे।
क्रूरकर्म हे युद्ध मनुज के खून बहाना,
सर्वनाश के आमंत्रण हे युद्ध बोलाना।
शोषण, भूख, अशिक्षा से सब करो लड़ाई,
दूर गरीबी करो मिलो भाई से भाई।
प्रेम-पारावार लहरावे चारों ओर,
हमरा मिटावे केहे देव-दनुज शोर।
मृतप्राय जीवन के देवै संजीवनी,
प्रेम के चदरिया हम बिनवै झीनी-झीनी
सोचते-सोचते कच होल भाव विभोर,
नाचे लगल कचके मन के आशा-मोर।