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पहिल मुद्रा / भाग 1 / अगस्त्यायनी / मार्कण्डेय प्रवासी

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लोपा मुद्रे!
बढ़ि आउ एम्हर
शृंगारक शय्या त्यागि कुशासन पर बैसू!

मुद्रिका फेकि मणि माणिक्यक
धो गंगाजलसँ हाथ प्रिये,
साधना दीपकेर बाती
कने दियौ उकसा!

देहक सीमामे
भरू विदेही तपोदृष्टि
त्यागक परिभाषामे
अपनाके श्लिष्ट करू
संयोग गगनमे-
यौगिक तत्व प्रकाश भरी
स्वेच्छासँ हमरा लोकनि:
कहै अछि लोक धर्म

सहचरी!
प्राण-वल्लभे, सुमन-सुषमा सुगंध!
कर्त्तव्यक क्रूर कठोर धरातल पर उतरू!

लावण्यमयी!
सविता समिधामयि काव्य दृष्टि!
सम्पूर्ण इषणा आकांक्षाके केन्द्रित क’
प्रज्वलित करू
यज्ञाग्नि कुण्ड
ऋत, सत्य, तप-
साधना सुधामे करू स्नान।

रागारुणसँ-
किछुओ कम की वरुणक प्रताप?
सारस्वत सरितामे
अशेष तारुण्य ताप
वयसक पिआस
कहिया प्रकाशसँ प्रखर भेल?
पुरुषार्थ सरणियोमे अछि
धर्मक प्रथम टेक।

भूमाक अतुल सुख सार धारमे भ’ प्रविष्ट
तरणी निज तनक-
बढ़ाबय जे धारानुकूल
तकरे मानस माँझी बनैछ हृदयक अनुचर।
प्रकृतिक विराट व्यापार
चितिक चेतना पाबि
आत्मा-शरीर मन बुद्धि संतुलन संयमरत
सदिखन रहैछ;
से जानि
मानि अपनाके अर्द्धांगिनी
शुद्धि अन्वेषणमे-
एकात्मवृत्त भ’

हे वैदर्भी!
बिसरू विदर्भराजक प्रासादक सुख सुविधा
हे राजकुमारी,
कचन वनसँ निकलि
पलासक काननके
सस्मित अधरक लालिमा लास्यसँ,
धन्य करू।

की सरस्वती
लक्ष्मीक रत्नमय आंगनमे
केवल भौतिक सुख स्वाद हेतु
आजीवन बान्हलि रहि सकैछ?
की पाटल दलमे-
सीमिति रहि क’ सुरभि
पवनके छोड़ि छाड़ि
काँटक शय्याके सहि सकैछ?

हे सौदामिनि!
किछु चमक मङै अछि अन्धकार।
जाधरि न विखण्डित
भ’ सकतै’ धन गगन,
न ताधरि घन गगन,
न ताघरि सम्भव छै’
धरतीपर-
सूर्य चद्रक रश्मिक शुक्लाभिसार।

मनकै छै-
हृदयक आइ प्रयोजन सर्वाधिक।
केवल मनस्विता
पूर्णताक पर्याय बनत
से सम्भव नहि;
ते हे हार्दिकते!
आउ, चली हम संग-संग।

अयि महामांगलिक मांत्रिकते!
परिवर्तन चाहि रहल अछि-
जीवन दर्शनमे
निर्माण पथक कल्याण-काम।
औदात्य मङै अछि-
डेग डेगपर लक्ष्य सिद्धि।

हे कवयित्री!
सम्पूर्ण समर्पण
चाहै’ अछि कवि कर्म धर्म।
केवल अभिघासँ
काव्य रंजना सम्भव नहि
लक्षणा, व्यंजना, तात्पर्याख्या शक्ति बिना
आणविक स्फोट-
की क’ सकैत अछि शब्द ब्रह्म?

भाषा संस्कृतिक
विकासक पथमे उगि आयल अछि
ठाम ठाम जंगल-पहाड़।

साधना क्षेत्र
वैयक्तिकताकेर नाग दंशसँ-
व्याकुल अछि।

कायिक सुख
वा व्यक्तिगत मोक्षसँ
नहि सम्भव आत्माक शान्ति;
ते हे कबिते!
राजसी रागके त्यागि चलू।

जीवन अछि
रेखा-चित्र एक
जे क्षुधा तूलिका
एवं तृष्णाकेर रंगसँ बनि पबैछ;
ते जिनगीमे
कामना तरंगक नहि अभाव।

जिनगी अछि नदी
सदा गत्यात्मकता जकरामे रहिते छै
एक ठाँ ठमकने
कहबै अछि बरा पोखरि।

जिनगी कविता अछि
रस वैविध्य जकर शोभा;
ई महाकाव्य अछि
जे कि एकरसतामे नीरसता पबैछ।

जीबन नाटक अछि
जकर कथानक रथ बढ़ैछ
दृश्यक परिवर्तनमय पथपर।

जीवन अछि संगीतक प्रवाह।
आरोह तथा अवरोह बिना
जहिना सांगीतिक स्वर न सिद्ध,
तहिना
उत्थान पतनमय आकर्षणक बिना
जीवनो बनै अछि नहि प्रसिद्ध।
जिनगी अछि
सात सुरक झंकृति।
एक टा सुरक कतबो सुमधुर उत्कर्ष
कानदे द पबैत अछि नहि जहिना-
सम्पूर्ण तृप्ति;
तहिना जिनगीमे
यदि न समन्वय राग विरागक भ’ पबैछ
तँ बाँटि पबै’ अछि नहि जिनगी
सम्पूर्ण दीप्ति।

एकटा फूल अछि नहि जिनगी
जे एक दू दिनक पाहुन हो।
जीवन अछि पुष्पोद्यान-
जाहिमे रंग-बिरंगक पुष्प समूह
फुलाइत अछि।

जीवन समुद्र अछि
दैछ उमंग तरंगक ध्वनि।
जगबैत रहै’ अछि
प्रति क्षण-
जन्म मरण तटके
चेतना चन्द्रिका पाबि
ऊर्ध्वमुख रहिते अछि।