पहिल मुद्रा / भाग 2 / अगस्त्यायनी / मार्कण्डेय प्रवासी
नहि जानि कते
मणि, मोती, सितुआ, शंख, माँछ
सिन्धुमे रहै’ अछि गर्भस्थे।
तहिना, विशिष्ट जीवन
अपनामे बहुत रास
भावना तथा
कल्पना किरणके पचबै’ अछि।
जहिना मुरलीमे
सात छिद्र
श्वासक संयोग पाबि
सप्तस्वर झंकृति बनि
छिद्रणक दुखके
सुखमे परिणत क’ दै अछि
तहिना जिनगीमे
त्याग-तपक दुःखानुभूति
अवसरक योग संयोग पाबि
बरिसै, अछि सुखक मेघ बनि,
जगके सरसै अछि।
जीवन अछि चाननकेर वृक्ष
जकरामे-
शीतलता सुगंधमय अमृत पाबि
विषधरो
विषाक्तीकरण प्रक्रिया बिसरै अछि।
जीवन भूमण्डल अछि
जकरामे केवल समतल क्षेत्रे नहि,
जंगल, पहाड़, घाटी, नद, निर्झर
सिन्धु मरुस्थल
-सभ किछु अछि।
केवल राजसी ठाठ
जीवनके
पूर्णताक वरदान देत, से सम्भव नहि।
जीवन अछि गगन
जाहिमे
केवल चन्द्रमाक शीतलते नहि,
सूर्योक तेज तापक प्रभाव
सक्रिय रहैछ।
दिनमे दिनकर
रातिमे निशाकर
आ असंख्य तारा-मंडल
जगमग रहैछ
जीवन प्रकाश गाथा कहैछ।
लोपे!
अहँ सुकुमारी, सुन्दरी, सुशीला छी।
हे राज श्री!
चलियौक तपोवनमे रमियौ’
अध्यात्म कंठ
ओजस्विताक संयोग पाबि
भावी पीढ़ीके
महामंत्रमय वर देतै।
हे संगीते!
हम शब्द
अहाँ छी अर्थक ध्वनि।
हम भाव
अहाँ भंगिमा हमर।
हम साज रहब
रागिनी जीवनभरि।
अहँ रहब
जहिना
सितारकेर तार-तारसँ
एक संग एक टा राग झंकृत होइछ
तैयो सभ तारक
पृथक-पृथक अस्तित्व सुरक्षित रहिते छै’
तहिना
पति-पत्नी रहितो
हम ऋषि रहब
अहाँ ऋषिका बनियौ।।
निर्जन वनमे
हम मानवीय मूल्यक संस्थापन यज्ञ हेतु
मांत्रिक प्रयोगशालाक कल्पना-
कयलहुँ अछि।
चाहैत रहल अछि-
हृदय प्राण मन अहँक साक्ष्य।
-सान्निध्य अहँक।
-साहचर्य अहँक।
-माधुर्य अहँक।
सौन्दर्य अहँक।
पत्नीत्व अहँक।
लालित्य अहँक।
बूझल अछि हमरा
जे कि कठिन सौविध्य त्याग।
भौतिक दृष्टिये
राजसी जीवन जँ अम्बर
तँ तपमय जीवन धरती अछि।
जँ स्वर्ग-जकाँ अछि राजमहल
तँ तपोभूमि पाताल-सदृश।
एकटासत्य अछि मुदा,
परीक्षित, प्रामाणिक
जे केवल भौतिक दृष्टि बले
जीवन यात्रा न सफल होइछ।
क्षणभंगुर विश्वक
महाशून्यमे बिला गेल अछि नहि जानो
कतबा राजा
रानी कतेक;
कतबा सोना, चानी कतेक!
अमरत्व पबै’ अछि
नहि राजा अथवा रानी,
सर्वस्व बनै अछि-
नहि सोना
अथवा चानी।
भेटै छै त्यागी तपसी जनके
इन्द्रक पद
वरुणक वैभव;
दशदिशावरण,
ऊषा संध्याक सिद्धिमय क्षण।
ते हे लोपे!
माया, ममता, मद मोह त्यागि
आग्नेय पथक
सहचरी बनू!
अमरत्वक मंत्रान्वेषणमे-
हम बढ़ी बढ़।
परिणीते!
परिणय-सूत्र सुरभिमय अछि लगैत।
सम्भव छै’-
राष्ट्रक हेतु करी किछु पैघ काज।
जँ सफल भेल अन्वेषण तँ
मंत्रक श्रुति स्मृति
आसेतुहिमाचल करत राज।
लोपामुद्रे!
बड़ छोट परिधि
दै’ छै’ मानवके आदि अन्त।
चिन्ता त्यागू
क’ रहल प्रतीक्षा अछि अनन्त।
हे सहयात्रिणी!
सुगम बनि जायत दुर्गम पथ
बिहुँसैत बढ़,
नहि तुच्छ कुशासनके बुझियौ’।
हम अहँक उपस्थितिमे
रागी वैरागी बनि
साधना क्षेत्रके
चिर यौवन सम्पन्न करब।
लालित्यमयी!
आदित्य मऊ।’ छथि-
गति-सम्मति।
कवयित्री हे!
कविताक कंटकाकीर्ण मार्ग
क’ रहल प्रतीक्षा अछि अहाँक।
कतबो अधलाह रहौ’ तैयो
कोनो युगमे
प्रातक रबिके
दै’ अछि कमलक उपहार पाँक।
हे मंत्रसिक्त तांत्रिकते!
बूढ़ू बढ़ी आगाँ;
हम दूनू गोटे संग-संग बढ़िते जायब
रहि चतुर्भुजी
आ चतुश्चरण।