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पहुँचे / साहिल परमार
Kavita Kosh से
जैसे दरिया का आब आसमाँ तलक पहुँचे,
मेरा ये दर्द तेरे जिस्मों जाँ तलक पहुँचे।
बदन था दूर जिगर की तो फ़िर क्या बात कहें,
बात ऐसी चली कि हम वहाँ तलक पहुँचे।
एक चुप्पी की तरह जी रहे थे सदियों से,
आज अल्फ़ाज बन के हम कहाँ तलक पहुँचे।
मूल गुजराती से अनुवाद : स्वयं साहिल परमार