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पाँचमॅ सर्ग / उर्ध्वरेता / सुमन सूरो

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बितलै बसन्त, बरसा बितलै,
थिर होलै वेग रवानी के।
निर्मल-संयत निखरी ऐलै
मुखड़ा मटमैलॅ पानी के।

जिनगी के रूप निहारै छै,
राजाँ गंगा के धारॅ में,
शीलॅ के ओप लहर मारै,
छन-छन गढ़ियैलॅ प्यारं में।

नित्तम शिव-पूजन साथ-साथ,

जन-मंगल दान-धियानॅ के;
कामॅ में जुटलॅ छाया रं,
काया दू, एक परानॅ के।

उगलै अतृप्ति के कोखी सें,
बिरवा संतोषॅ के सुन्दर;
खाली प्राणॅ के सोर-सोर में,
भरलै महामोद मंतर।

राजा सचेत छै रानी के,
कामॅ में, दखल-दियानो सें;
जेना पानी में रही कमल
निर्लिप्त रहै छै पानी सें।

रुख ताकी राजा के रानी
सुख पहुँचाब लेॅ सतत बढ़ै,
बाटॅ के काँटॅ चुनी-चुनी
कण-कण में कोमल फूल जड़ै।

छै महासमुन्दर में दोनों
नाविक जिनगी, के नावॅ पर,
सॅ दै छै एक्कें दोसरा केॅ
ज्वारॅ के तेज चढ़ावॅ पर।

जेना पहिया रंथॅ में जड़लॅ
दोनों एक बरोबर छै,
राजा में रानी, रानी में
राजा के सरधा-आदर छै।

समगति सें गुजरै काल बदलने
वर्त्तमान के काया केॅ,
पोसै भबिष्य के कोखी में
सपना के सुन्दर छाया केॅ।

रसमय ठारीं चिकनॅ-कोमल
पिरका पत्ता छतनाय गेलै
पाबो केॅ सुख-संतोषॅ के
चंचल यौवन गदराय गेलै।

दुधिया बरफॅ पर परत मिहीं
जमलै हरदी के पानी के,
राजाँ निरजासै परिवर्त्तनमय
रूप नया कुछ रानी के।

प्रेमिल आँखी में करुणा के
लहरें हिलकोरा मारै छै,
यौवन के चुलबुल पलकॅ पर
ममता ने डेरा डारै छै।

मुस्कान तनिक फिक्कॅ लेकिन,
गहरैलॅ नया कहानी सें,
भरियैलै फूलॅ के कोबॅ
मानॅ ओसॅ के पानी सें।

कल्पना करी सुखमय भविष्य
के उमड़ै लहर उछाहॅ के;
बढ़लै दुगना तासीर प्रेम
के, आदर-सरधा चाहॅ के।

चुपचाप परेखै राजा ने
रानी के रुख अनुमानॅ सें
इच्छा सें पैहने सुलभ करै
सबटा इच्छित सम्मानॅ सें!

धड़कै रानी के दिल मानॅ
राजा के चौकस अन्तर में,
आदर ने लेलकै ठाँव सहज
दोनों के प्रेम निरन्तर में

2.

दिन बितलै ऐलै घड़ी पुत्र-जन्मोत्सव के,
लेकिन राजा के सब विश्वास ठगाय गेलै;
माखन सें कोमल रानीं बज्र कठोर बनी,
नवजात फूल गंगा के धार चढ़ाय गेलै।

चुपचाप मौन-बेबस राजां टुकटुक देखै,
जीवन के अजब अलौकिक यै अनहोनी केॅ;
पर वचन-भंग के त्रास वचन पर ताला रं
जड़लै, मानॅ साकार करै छै होनी केॅ।

कटु पुत्र-शोक के खोंच कचोटे अन्तर में,
राजां छगुनै छै यै अनबूझ पहेली केॅ;
रानी पैहले रं मधुर स्वस्थ उल्लासॅ सें,
उझलै राजा-आगूँ प्रेमॅ के झोली केॅ।

नित चिकनॅ स्रार-खड़ी के मालिश देहॅ पर,
घोरै कस्तूरी-खस नाहै के पानी में,
तुलसी पत्ता कूटॅ के लेप करै; सुन्दर,
कोमल-सें-कोमल चमड़ी रहॅे जुआनी में।

चेहरा पर मलै, घटॅे नै सुन्दरता जे सें;
सदका जौ, राय-लोध्र के मिहीं-मिहीं बुकनी;
पिय के आँखी में खुशी बसैने राखै लॅे,
हर जतन करै, सिंगार करै जखनी-तखनी!

पर एक-एक केॅ सात पुत्र के यहॅे नियति,
बेकल हौलै छन-छन राजा उद्धॅेलित मन;
दुख ने घरबास बसैने छै सुख नगरी में,
के टारेॅ पारॅे विधना के ई अटल नियम?

आठमॅ पुत्र के जन्म-दिशा हरखित होलं,
रंगलै सौंसे आकाश उषा के लाली लें;
जेना अनादि में माय अदिति ने भेजलकै
‘मार्तण्ड’ आठमॅ भरलै जग खुशियाली सें।

पूर्णिमा रात में उजियाला सौंसे धरती,
पर बढ़ै समुन्दर में ज्वारॅ के आलोड़न;
शुभ खबर अशुभ के आशंका भारें दबलै;
राजा अधीर-असहाय-भयातुर छन-पर-छन।

छै कभी-कभी जिनगी में आबै चौराहा,
जे ठाँ पहुँची केॅ सहज अकबकी लागै छै;
राही केॅ चुनबॅ राह कठिन वै मोड़ॅ पर,
जैं एक चूक पर रूंजी-पुंजी माँगै छै।

बेचैन मनें राजा दुलकै दरबाजा पर,
कुछ कदम बढ़ो केॅ फेरू पीछू लौटे छै;
बाटॅ के आँट बिना पैने राही जेना,
बौलामन, दुबिधाँ रही-रही केॅ औंटे छै।

‘ठक-कोनधरॅ के दरबज्जाँ देलकै झटका,
धक् सें राजा के छाती पर धड़की उठलै;
मानॅ जे चिरिक् बनी केॅ आगिन के रेखा
सरङॅ सें दौड़ी धरती पर तड़की उठलै।

”धिक्-धिक् जीवन, शिशु रक्षा में,
असहाय बनी केॅ जीयै जें’
डरगुही गरानी के मदिरा,
स्वारथ के खातिर पीबै ज।

जे राजा ने रक्षा के व्रत
लेने छै सैंसे राजॅ के,
फैसला करै छैनियमॅ सें
जोगै सत-असत समाजॅ के;

ऊ खुद बिलटै अपराधी रं
छन-छन आत्मा के खोहॅ में;
जिनगी सौंसे बेरथ गेलै
सुन्दर नारी के मोहॅ में।“

पल में राजा छनकी उठलै,
आँखी में कुछ चमकी उठलै,
भोरॅ में रात अन्हरिया के
मानॅ सूरज धमकी उठलै।

संकल्प करी केॅ कुछ मन में,
राजाँ छेंकलकै रानी केॅ,
मानॅ जे लाल बुझक्कड़ ने
बूझलकै अबुझ पिहानी केॅ।

3.

”ठहरॅ धीरज के बहुत परीक्षाभॅे चुकलै
भेॅ चुकलै बोझॅ असंभार यै जीवन के
छै बिना जिरैने एक डेग बढ़बॅ मुश्किल
फूली रहलॅ छै साँस आतमा के, मन के।

बस परत-परत जमलॅ अन्हार में टौआना,
बोलॅ तेॅ कोनी प्रेमॅ के परिभाषा छै?
गेंठॅ पर गेंठ सबालॅ के बढ़लॅ जाय छै,
कहियो नै हमरा उत्तर के अभिलाषा छै?

जों उगॅे कमल के दल-दल में काँटॅ खाली,
नै चित्थी-चित्थी भमरा के तन-मन होतै?
कत्तेॅ बेधक बँधबॅ पराग के मोहॅ में,
कत्तेॅ द्रावक ओकरॅ गुंजन-रोदन हातै?

जों सिरिस फूल अनचोके बज्र कठोर बनेॅ
गंगा के पानी पत्थल बनेॅ रवानी में,
कुछ तेॅ कारण होतै होनी-अनहौनी के,
ई आग लगाबै के कोखी में, पानी में?“

सजलै सुन्दर मुखड़ा मुस्कानॅ-रेखा संे,
नेहं के कोमल ओप उभरलै आँखो सें,
मानॅ हुलकै छै शरद्-पूर्णिमा कै चाने,
सदका मेघॅ के ओट बिदारी फाँकी में।

ठमकी केॅ रानी राजा केॅ टुकटुक ताकै
आँखी सें पीयै पौरुषमय सुन्दरता केॅ
वंचित होबॅ जेकरा सें निश्चित अगला पल
हिरदै में दाबी केॅ संकुल अतुरता केॅ।

”लागी गेलै अध्याय एक जीबन क्रम के
ई वचन भंग छै अन्तिम शब्द कहाना के
चूरी केॅ सौंसे परत अन्हरिया के आबॅे
खोलै लेॅ पड़तै सबटा भेद् पिहानी के।“

रानी दू डेग बढ़ी नगिचैल राजा लग
बेगरै सें पहिने सट्टी केॅ खडु़आय गेलै
नेहॅ के कोमल ओप मिङरलै आँखी सें
मुखड़ा पर के सबटा मुस्कान बिलाय गेलै।

”मैं हुवॅ अधीर बताय छिहौं सबटा खिस्सा,
हर कामॅ के पीछू में कारण होथैं छै,
आदमीं निमित्त बनी केॅ जिनगी-जिनगी भर
कोनो-नी-कोनो बिड़म्बा तेॅ ढोथैं छै।

कोय बिड़म्बना माँगी केॅ लै छै अपना पर
कुछ बिड़म्बना पाबी जाय छै अनजाने में
अजगुत-विचित्र छै धरती के लीला-खेला
कोय पाप करै छै पुण्य काज के माने में।

तोरॅ जे सातौ पूत दहैल्हौं पानी में,
देवता वसू छेलै वशिष्ट के शापॅ सें,
बस जन्म गहलकै मर्त्तलोक के माँटी में,
आ मुक्त बनी केॅ गेलै सब संतापॅ सें।

नन्दिनी गाय के चोरी के अपराधॅ में
मिलभै सराप तेॅ आठो वसु अकुलाय गेलै
विनती-पर-विनती मुनिवर सें करला बादें
बस जन्म-ग्रहण तक सातें छारम् पाय गेलै।

आठो वसु ऐलै हमरालग कर जोड़ी केॅ,
प्रार्थना करलकै माय बनै के हमरा सें,
माँङलकै एकटा वचन-‘जन्म साथें मुक्ती’
ऊ देलियै हम्में, वचन निभैलियै ओकरा सें।

”आठमॅ पुत्र-आठमॅ वसू,
धरता केॅ सजतै कर्म सें;
जोना छै एकरा जनम भरी,
अवगत होना छै मरमॅ सें।“

जह्नु-सुता जाह्नवी हमें गंगा छेकाँ
भगवान विष्णु के नख सें शिव के
जटा तायँ हमरँ बिहार;
गिरि के छाती पर हहरैली धरतीं ऐलाँ
भागीरथ के पुरुषारथ निष्ठा-श्रम अपार।
शरणागत के स्वारथ सिद्धी,
परमारथ के कामना साथ;
ई जन्म कृतारथ होलॅ छेॅ,
पाबी केॅ तोरॅ जुगाँ नाथ।”

”बस पूर्णकाम होलाँ पाबी आठमॅ पुत्र।
नै घड़ी मिलन के शेष बहाना वचन भंग;
देॅ विदा खुशी मन से राजन्!
शिशु के साथें,
छ माता के बाँकी थोडॅ़ टा कर्म संग।”

“नै करॅ सोच बितलै मुहुर्त्त आलिंगन के,
जे दिन तोरा मन में उत्कंठा
प्रबल वेग सें दर्शन के उठतै
हौ दिन हाजिर होबॅ।
लेकिन अच्छा नै महाराज!
नित धरम-करम केॅ भूलौ केॅ
मधुमय अतीत मन में ढोबॅ।

”सब राजा ने राजा मानो
देने छौं सुजस-प्रतिष्ठा जे
पैहलॅ छौं तोरॅ काम वहॅे टा जोगै के।
हे शंखग्रीव!
न व्यक्ति, अमर छै कर्म,
कर्म-सुख भोगे के।”

”बेटा सुजोग होथौं देभौं लौटाय
करॅ नै पछतावा;
सातो सुरर्ज के तेजपुंज यै बालक केॅ,
जेकरा पर धरतीं जुग-जुग तक
करतै दाबा।“

बोली केॅ गंगा अन्तरधान पराय गेल,
कठुवैलॅ राजा के तन-मन मुरझाय गेलै।
गधेली बेरा के उदास पहरॅ में
तेजहीन सुरुज जेना अस्ताचल जाय छै,
वहेॅ रं टुघरलॅ भारोमन राजा
अन्हार मूँ, भीतर समाय छै।

प्रचंड रौदी सें चिलकलॅ बालू के ढहॅ पर
पानी के सोतॅ रं, बिलाय गेलै प्रेमॅ के अध्याय;
राजाँ सोचै छै छटपटाय-छटपटाय
कर्मॅ के बारे में
जे गंगाँ कहीं गेलै
ओकरॅ रहस्य; ओकरॅ उपाय।

”कमलॅ सें विमुख भवराँ काठॅ में घॅर बनाय छै
हवा में गुनगुनाय छै, अकेले मॅन बहलाय छै
ओकरॅ कर्स छै गुनगुनाना-गीत सुनाना
कमल हुअेॅ कि काठ-सबकेॅ अपनाना।“

आँखी में उठलै जग-जग इंजोतॅ के ज्वार
प्रेम-सुख केॅ कर्म-सुख बनाय के संभार
‘स्व’ के ‘पर’ में विस्तार-अपरंपार।

जेना उदयाचल पर सुरुजदेव मुस्काय छै;
बहॅे रं राजा महलॅ सें बहराय छै।