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पाँचम मुद्रा / भाग 1 / अगस्त्यायनी / मार्कण्डेय प्रवासी

किछ घन खण्ड संग मिलि कयलक
चंचलाक आखेट
करुण काव्यसँ भरलै’ गगनक
कारी-स्याह सिलेट

जानि कत’ चल गेल चान
तारा दल भेल निपत्ता
के पागल लटकौलक अछि
धरती दिस उनटा छत्ता!

अपने अंग लगै’ अछि आन
नयनसँ झहरै’ अछि जल
झहरि रहल लगइछ अम्बरसँ
झरना झर झर अविरल

उचटल निन्न, भिन्न तनसँ मन
छिन्न लगै, अछि माथ
चिन्ता रथपर श्लथ शरीर
सारथीहीन, विक्लान्त

रहि रहिक गर्जना तर्जना
आ पवनक आवेग
जनु हो ताप शाप परिपीड़ित
काल उठौने डेग

एकाकिनी विरहिनी लोपा
आश्रममे शंकालु
लगलै’ देवदारुपर बैसल
अगणित बानर भालु

आँखि बन्न निश्चेतन तन
प्रोषितपतिका ऋषिकाक
विरह राग मूर्च्छना व्यंजना
पौलक रस परिपाक

बीतल बेसुध क्षण, सपनामे
देखलि लोपामुद्रा
ऋषि अगस्त्यके रूसल, जनु
बूझथि पत्नीके क्षुद्रा

बाजलि लोपा: ‘‘हमर भावना
बूझू हे पतिदेव!
केवल वैराग्ये प्रसन्न नहि
भ’ सकैत अछि देश

कोटि कोटि जन हो अधपेटा
तखन न सम्भव शान्ति
किछुए लोक बँटै’ अछि अधिका
धिक जनमे विश्रान्ति

कवयित्री मंगलक सुबिधा
भावी पीढ़ीक निमित्त
सर्वविदित अछि अर्थाभाव
करै’ अछि चंचल चित्त’’

बजिते छलि लोपा कि देह
सिहरलै’, निन्न टुटलैक
स्वप्न भंग भेलैक; ऋषिक
कुशलक चिन्ता जगलैक

पूर्व क्षितिजपर रक्त कमल
उगबैत उषाके देखि
लोपा भेलि प्रसन्न, मुहुर्त्तक
शुभ संकेत परेखि

अरुण वरुणके पूजि मनहिमन
दूर दृष्टि अभिमंत्र
दृगमे वायु, ताप ध्वनि, रश्मिक
सजग सूक्ष्म अभियंत्र

देखलि लोपा, ऋषि अगस्त्य छथि
सरिपहुँ स्वस्थ प्रसन्न
आबि रहल छथि आश्रम दिस
अर्जित कयने धन-अन्न

सर्त्तमानके जानि कयलि
कवयित्री भूतान्वेषण
दैत्य बन्धु विजयक गाथासँ
प्रकटित तथ्य निदेशन

बड़ संतोष हृदयमे, मनमे-
चंचल भेल भविष्य
जनु हो हवन कुण्ड उत्साहित
पाबि धृताक्त हविष्य

मनमे अति संतोष कि प्रण
पूरब न असम्भव आब
गृहिणी रमणी बनति तथा
पाओति पदवी माताक

देखलि: ऋषिक संग नृप गण
छथि पृािक-पृथक रथयुक्त
जनु हो बौद्धिक तथा बाहु बल
स्वर्ण सुरभि संयुक्त

ऋषिक स्वर्ण रथके दू टा
तेजस्वी अश्वक पाँखि
गरुड़ासन बनबैछ, देखि
लोपा निराड़लक आँखि

दूनू दिस गिरि शृंग बीचमे
पातर प्रस्तर पथ
समय शिलापर जनु हो खचित
एकटा शाश्वत ग्रन्थ

अथवा साहित्यक जंगलमे
एकाकी सत्काव्य
वा अगणित आराधक-दलमे
एक मात्र आराध्य

अति घूर्णित रथ चक्र निकट,
आयल आश्रम लोपाक
नृप दलके आज्ञा देलनि ऋषि
समुद स्वगृह जयबाक

किछुए क्षणमे आश्रममे रथ
रुकल, अगस्त्य उतरला
वस्तु उतारि स्वयं लोपाकेर
निजी कक्ष दिस बढ़ला

सभटा दृश्य सुदूर दृष्टिये
देखि रहल छलि लोपा
तन्मयतामे अकस्मात-
भेलैक एक अनचोका

दू टा नयन नयनमे; दू टा
बाहु बनौलक वृत्त
पुरुष वक्ष सटलैक पीठसँ
भेलै’ चंचल चित्त

लगलै’ जे कोनो अपराधी
संयम बन्धन तोड़ि
चुप्पे पाछाँसँ आयल
आ देलक बाँहि मरोड़ि

वा कोनो लुच्चा विवेकके
बेचि पकड़ि लेलक अछि
बाजलि- ‘‘रक्षा करू प्राण-पति!
दस्यु जकड़ि लेलक अछि’’

कयलक सावर शैलीमे
मारण मंत्रक आह्वान
बात बूझि ऋषि विद्युत लयमे
कयलनि कवचक गान

स्वर सुनिते, लोपाक प्राण -
मन नभमे प्रायश्चित घन
कूचलि जीह, क्षमा माङलि
आ कयलि स्वागतालिंगन

कहलनि ऋषि - ‘हे प्रकृति!
आश्रमक सीमामे नहि आन
कोनो पुरुष अन्यथा भावे
आबि सकत सप्राण