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पाँचम मुद्रा / भाग 2 / अगस्त्यायनी / मार्कण्डेय प्रवासी

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चारू भाग आश्रमक परिखा
अछि संदेह तरुआरि
जे नाँघत दुष्टता भावसँ
से होयत दू दालि

हमर मंत्र बल
कोनो योद्धाके ललकारि सकैछ
आध्यात्मिक साधना
शरीरी बलके पाबि सकैछ

अहँक रूप-गुण अतुलनीय छल
तैयो नहि नृप वर्ग
शापक भयसँ कयने छल
परिणय वार्त्ता सम्पर्क

बूझल छै’ सम्पूर्ण विश्वके
अहँक सृष्टि इतिहास
हे कामना प्रसूता!
हे कल्पना कलाक प्रकाश!’’

‘‘हँ, हँ, बूझल अछि तैयो -
अछि अहँक मुँहे सुनबाक’’
बाजलि लोपा - ‘‘हे ऋषि!
अछि प्रजनन रहस्य गुनबाक’’

कहलनि ऋषि: ‘‘छल -
चिर कुमार रहबाक हमर संकल्प
ते परिपूर्ण कयल हम
विज्ञानक आध्यात्मिक कल्प

मुदा पितरके नहि रुचलनि
जे हम रहि जाइ अपुत्र
छै’ ई सत्य कि मोक्ष दैत छै’
अपने वंशक पुत्र

वचन देल हम जे कि
विवाह करब’ लतरायब वंश
आ पायब उद्धार
पितृ ऋणसँ; छी पितरक अंश

प्रश्न उठल, तपमय जीवनके
के पत्नी सुख देत?
भेटत कत’ सुशीला नारी
के अभाव व्रत लेत?

उत्तरमे कल्पना कयल हम
मनोरमा नारीक
देल कमल लावण्य, हरिण दृग
चालि लेल हथिनीक
मंत्र दृष्टि ऋषि कुलक
दर्प राजस कुलसँ ल’ लेल
कृषि सभ्यता कृषक कुल आ
सेवा सुधि सेवक देल

लेल स्थैर्य सागरसँ
गंगा यमुनासँ चांचल्य
हिम नगसँ ल’ स्वाभिमान
लेलहुँ भू सँ मांगल्य

भेटल जत’ कतहु सुन्दरता,
शील, सौम्य, अनुराग
गुथलक माला जकाँ
हमर कल्पना किरणकेर धाग

ओही समय विदर्भराज
संतान हेतु तप कयलनि
उग्र तपस्या रत भ’
दृढ़तर इच्छा शक्ति जगौलनि

हम पठबा देलियनि
कल्पना कमनीयाक सनेस
स्वस्ति पाबि अशीष
देल परिपूरित भेल उदेस

अहाँ जन्म लेलहुँ
विदर्भ कुलमे हे राजकुमारि!
तेजस्विते! रूपमयिते!
आपादशिरा सुकुमारि!

ताकल बहुत, मुदा नहि भेटल
अहाँ योग्य उपमान
हे श्रीमती! अहँ सोझाँमे
तुच्छ अहँक श्रीमान्’’

‘‘हँ, हँ भेल बहुत, न आब
सौन्दर्य शास्त्र अहँ बाँचू’’

बाजलि लोपा - ‘‘हे कवि!
कवयित्रीक प्राण नहि आँचू!
अहँक उपस्थिति पाबि पुनः
चन्द्रित लगइछ आकाश

अछि उर-सिन्धु तरंग-रंगमय
तीव्र भेल उच्छवास
सान्निध्यक संवेग - सोम
मनके मदिरौलक आइ

संयम घन वनके रूपक
बिजुरी दमकौलक आइ
आइ न हम ऋषिका ऋषि
केवल प्रकृति पुरुषके रहबैक’’

‘‘सौदामिनी! अहँक लिपिमे
हम वंश काव्य लिखबैक’’
‘‘भिनसर अयलहुँ, राति भेल’’
‘‘वस्त्रालंकृत भ’ जाउ’’

‘‘काम रूप! बस भेल, चुप रहू’’
‘‘रति रूपा! न लजाउ’’
सरस वाद संवादके रुचल
वांछित अर्द्धविराम

अलंकरणमय रमण वाक्य
पौलक सौन्दर्य ललाम

मणि - मुक्तामयि धरती
नखत - ज्योतिमय छल आकाश
स्वर्ण - सेजके त्वरा - तेज
देलक मन्मथित सुवास

भेल प्रकृतिरत पुरुष
पुरुषमयि प्रकृति भेलि सानन्द
जनु संयोग-सुकाव्य मुखर
हो पाबि चतुर्भुज छन्द

ठमकल समय, पवन ठहरल
मन सरिपहुँ भेल अचंचल
दू टा अधर संग मिलि कयलक
श्वास सुधाके निर्मल

थम्हलक धरती-
संवेगित गगनक आवेग-प्रवेग
भेल ऊर्ध्वमुख निर्झरणी
नहि रोकि सकल अनुवेग

ब्रह्मचर्य गार्हस्थ्य सुखक
अनुभव कयलक सुविशेष
तुष्टि तोष संगममय
ऋषिका-ऋषिक प्राण-परिवेश

बीतल दिनपर दिन, लोपामे
परिवर्त्तन अयलैक
चंचलता घटलैक
अपरिमित मातृ-तत्व जगलैक

बीतल निश्चित अवधि
मातृ-पद लोपामुद्रा पाबि
पुत्र जन्म सुख लूटि रहलि छलि
सुललित सोहर गाबि

तखने ऋषि पजापरसँ उठि
देखल पुत्रक देह
कहलनि: आइ पवित्र भेल
भ’ महामंत्रमय गेह...

मंगल-वाक्य प्रसारित कयलनि
नाम ‘दृढ़स्यु’ उचारि
कहलनि-‘‘लोपे! छी कृतज्ञ
देलहुँ ऋणभार उतारि’’

संतोषकक सागर उफनैत
रहल, आश्रम छल शान्त
बाल-सुलभ आचरण दृढ़स्युक
देखि, मुग्ध उर प्रान्त