भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पाँचवीं ज्योति - निर्झर / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी
Kavita Kosh से
ओ निर्झर!
झर्-झर्-झर्,
कल-कल करता बता रहता तू, प्रतिपल
क्यों अविरल?॥1॥
ओ निर्झर!
गिर-गिरकर,
उत्तुंग शृंग से नीचे बहा उतर कर
क्यों भूर पर?॥2॥
ओ निर्झर!
मुड़-मुड़ कर,
तू इधर-उधर छिपता-फिरता रे भगकर,
क्यों डर कर?॥3॥
ओ निर्झर!
यह हलचल,
तेरे जीवन की सरस धार क्यों चंचल
तू अविकल!॥4॥
ओ निर्झर!
प्रति पल-पल,
मर्मान्त व्यथा से आहत तेरा हृद-तल,
क्यों विह्वल?॥5॥
ओ निर्झर!
झुक-झुक कर,
किस पाप-कर्म का प्रायश्चित सिर नत कर
रे मत डर?॥6॥
ओ निर्झर!
रुक-रुक कर,
पथ के रोड़ों से, पाषाणों से डट कर,
तू रण कर॥7॥
ओ निर्झर!
चल-चल-चल,
स्वच्छन्द मार्ग है तेरा, तू विचरण कर,
रे अविचल?॥8॥