भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पाँचवी किरण / द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक युग बदल गया।
सहस्र वर्ष का अभेध अन्धकार मिट गया।
आ गया द्वितीय युग नवीन कल्पना लिये,
नवीन प्राण-स्फूर्ति औ- नवीन चेतना लिये,
नवीन भाव, नव विभाव, नव प्रभात बल नया।
एक युग बदल गया॥

हो गया प्रकाशवान् वर्तमान् अंशुमान्
है भविष्य का भविष्य अमल-धवल दीप्तिमान्,
स्वर्णमय विहान, सरित् कल-कल छल-छल नया।
एक युग बदल गया॥

असुर प्रवृत्तियाँ जहाँ मचल रहीं विनाश-हेतु,
देव-शक्तियाँ वहाँ चलें तुरन्त बाँध सेु,
विश्व देखले कि तृण समान पाप जल गया।
एक युग बदल गया॥