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पाँच बज गए / रवीन्द्रनाथ त्यागी

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पाँच बज गए

दफ़्तरों के पिंजरों से
हज़ारों परिन्दे (जो मुर्दा थे)
सहसा जीवित हो गए...
पाँच बज गए...

आकुल मन
शलथ तन...

भावनाओं के समु्द्र
शब्दों के पक्षी
गीतों के पंख खोल
उड़ गए... उड़ गए...
पाँच बज गए।