पाँच / प्रबोधिनी / परमेश्वरी सिंह 'अनपढ़'
वेदना को मैं गरल में घोल कर, पी चुका हूँ पी रहा हू।
घाट का पत्थर कभी चाहा था, मंदिर का बनूँ मैं देवता
और प्रतिमा की तरह मुझको, जगत यह पूजता
किन्तु, आँखो से रजक के बच सका क्या
पुन: ला फटका हमें उस घाट पर
शीत-ओला-बात-झंझा जिस तरह पहले कभी मैं सह चुका हूँ, सह रहा हूँ।
दर्द इतना मधुर होगा, गरल में इतनी अमरता
बात इतनी जानता तो हर कोई पीकर ही जीता
अरे! अनजान मत छोड़ो मधुर अंदाज़ को
सो गई दिल में जो-हाँ उस दर्द की आवाज को
वेदना के तार से अपने फटेउर सी चुका हूँ, सी रहा हूँ।
मित्र! मोटे अक्षरों में लिख रहा हूँ
पाँव पड़ता हूँ, मैं करता हूँ तुम्हारी बंदना
मैं लुटाता हूँ यहाँ मधु
गरल के लाखो गुणा
लोग कितने ले चुके हैं, ले रहे हैं
मैं सुधा से विष बदल कर पी चुका हूँ पी रहा हूँ
वेदना को मैं गरल में घोल कर, पी चुका हूँ पी रहा हूँ