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पाँवों से लहू को धो डालो / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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हम क्या करते किस रह चलते
हर राह में कांटे बिखरे थे
उन रिश्तों के जो छूट गए
उन सदियों के यारानो के
जो इक –इक करके टूट गए
जिस राह चले जिस सिम्त<ref>ओर</ref> गए
यूँ पाँव लहूलुहान हुए
सब देखने वाले कहते थे
ये कैसी रीत रचाई है
ये मेहँदी क्यूँ लगवाई है
वो: कहते थे, क्यूँ कहत-ए-वफा<ref>वफ़ादारी का अकाल</ref>
का नाहक़<ref>बेकार में ही</ref> चर्चा करते हो
पाँवों से लहू को धो डालो
ये रातें जब अट जाएँगी
सौ रास्ते इन से फूटेंगे
तुम दिल को संभालो जिसमें अभी
सौ तरह के नश्तर टूटेंगे ।

1973

शब्दार्थ
<references/>