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पाँव अन्तर्व्यथा के अचल हो गये / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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पाँव अन्तर्व्यथा के अचल हो गये
प्रीत के नैन हर पल सजल हो गये

ये चमन में चली क्या विषैली हवा
फूल भी शूल सब आजकल हो गये

सत्य की साँस असहाय घुटने लगी
झूठ के सब सहारे सबल हो गये

घूमते लोग ऐसे मुखौटे लगा
कल नक़ल थे वही अब असल हो गये

दूध जिनको पिलाया बड़े प्यार से
ख़ुद वही आज हमको गरल हो गये

थाम कर हाथ चलना सिखाया जिन्हें
व्यंग्य कस कर विहँस कर कोई चल दिया

प्राण तन-मन किसी के विकल हो गये
बात करने का जिनको सलीक़ा न था

आज दरबार के बीरबल हो गये
चापलूसी हमें रास आई नहीं

याद के बीच तुम बो गये इस क़दर
सौ गुनी हिचकियों की फ़सल हो गये

गर्दिशों ने सिखाये सबक़ वो हमें
ज़िदगी के सभी प्रश्न हल हो गये

पीर की जाह्नवी में लगा डुबकियाँ
भाव अन्तर के धुल कर विमल हो गये

चोट ऐसी ‘मधुप’ कुछ लगी मर्म पर
घाव शब्दों में ढल कर ग़ज़ल हो गये