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पाँव नदी में धो आते हैं / शार्दुला नोगजा
Kavita Kosh से
यादों के जब थके मुसाफिर, पाँव नदी में धो आते हैं
देर रात तक चूल्हे जल के, गंध पाहुनी बिखराते हैं।
माँ-बाबूजी के दुलार का, हाथ रहे जब सर के ऊपर
चाहे दिशाशूल में निकलूँ, कार्य व्यवस्थित हो जाते हैं।
बहना ने भेजी जो हमको, हँसी ठिठोली चिट्ठी में भर
जब भी उनको खोल पढ़ूँ मैं, याद सुनहरी बो जाते हैं।
कितने सालों बाद जो ननदी, घर सबसे मिलने आती है
गठिया वाले पाँव हैं चलते, दर्द पुराने खो जाते हैं।
आंगन में आता है जब भी सावन का हरियल सा महीना
बिना तुम्हारे पिया ये प्यासे नयन कटोरी हो जाते हैं।