भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पाए-अफ़गार पे जब से तुझे रहम आया है / ग़ालिब

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पा-ए-अफ़गार पे जब से तुझे रहम आया है
ख़ार-ए-रह को तेरे हम मेहर-ए-गया कहते हैं

की वफ़ा हम से तो ग़ैर इस को जफ़ा कहते हैं
होती आई है कि अच्छों को बुरा कहते हैं

आज हम अपनी परेशानी-ए-ख़ातिर उन से
कहने जाते तो हैं पर देखिए क्या कहते हैं

अगले वक़्तों के हैं ये लोग इन्हें कुछ न कहो
जो मय ओ नग़मे को अंदोह-रुबा कहते हैं

दिल में आ जाए है होती है जो फ़ुर्सत ग़श से
और फिर कौन से नाले को रसा कहते हैं

है पर-ए-सरहद-ए-इदराक से अपना मसजूद
क़िबले को अहल-ए-नज़र क़िबला-नुमा कहते हैं

इक शरर दिल में है उस से कोई घबराएगा क्या
आग मतलूब है हम को जो हवा कहते हैं

देखिए लाती है उस शोख़ की निख़वत क्या रंग
उस की हर बात पे हम नाम-ए-ख़ुदा कहते हैं

'वहशत' ओ 'शेफ़्ता' अब मरसिया कहवें शायद
मर गया 'ग़ालिब'-ए-आशुफ़्ता-नवा कहते हैं