भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पाकर सँजोने में / भारत यायावर
Kavita Kosh से
और वह हो गया
बरसो सँजो रक्खा था
वह खो गया
तिल-तिल गला दिया ख़ुद को
न छक कर खाया-पिया-आराम किया
न जी भर कर अपनी की
सँजोए रहा उसे
रात-रात भर जाग कर रखवाली की
सुबह उठकर उसकी ही अर्चना की
खो जाने के डर से बाहर भी नहीं गया
अपने-आप में रहा
और वह हो गया
जिसके लिए ज़िन्दगी बरबाद की
वह खो गया
वह खो गया
अब निश्चिंत हूँ
जी भरकर खाता-सोता हूँ
दूर-दूर घूमता हूँ
दिमाग के ऊपर भूत जो सवार था
न जाने कहाँ चला गया
न उलझन, न भय
चैन से रहता हूँ
सोचता हूँ
सँजो कर रखने में
हम कितना तहस-नहस कर डालते हैं
ख़ुद को ही
खोना ही जीवन का वरदान है
और पाने
पाकर सँजोने में
पूरी दुनिया हलकान है
(रचनाकाल : 1995)