पाखंड प्रतिषेध / रामचंद्र शुक्ल
“हम लखि, लखहि हमार, लखि हम हमार के बीच;
तुलसी अलखहि का लखहि, राम-नाम जपु नीच।”
“अंतर्जामिहु तें बड़ बाहरजामी हैं राम.....” (तुलसी)
(1)
तमोमयी वासना के गर्भ में विलीन कभी,
गडे हुए आप में जो आपको छिपाते हैं;
रूप गति-भेद का विकास लेके वे ही भाव,
खेलते खेलाते हुए खुले चले आते हैं।
परम-हृदय खुला, बना क्या? जगत्-काव्य,
जगी हुई ज्योति-सा जगाते जिसे पाते हैं;
यों ही खुल बाहर जो आपको बढ़ाते वे ही,
हृदय पुनीत कला काव्य को दिखाते हैं।
(2)
अखिल अनंत महाकाव्य की अखंड धार,
फूट-फूट छिटक रही हैं विश्व-रूप धर;
पालन विनाश के विधान की झलक लिए
छलक रहे हैं भूरि भाव भी भुवन भर।
होके रस-सीकर वे भेदते नहीं हैं किन्तु,
हृदय जो बाहर को खुले द्वार मूँदकर;
कोठे-कोठे भरम रहे हैं अंधकूप बीच,
कूदते हैं वात-पित्ता-लिप्त किसी कोने पर।
(3)
छुटती चराचर में इसी भाव धारा ओर,
हृदय हमारे आदि कवि का खुला था जब;
सत् के आभास लोक पालन औ' रंजन के
भावों की पुनीत प्रभा उसमें समाई तब।
ध्वंस-रूप असत् की छाया साथ-साथ लगी,
देख पड़ी, किंतु वह उसमें सकी न दब;
जगत् की जागती अनंत कला शाश्वत हैं,
सगुण-विभूतिमयी भासमान सत्ता सब।
(4)
सहन हुआ न उस सत्तवगर्भ मानस को,
खग के भी जीवन की हानि और सुख-भंग;
वेदना से क्षुब्ध ज्यों ही उमड़ पड़ा हैं वह,
भारती की वीणा झनकारती उठी तरंग।
रोष ने, अमर्ष ने, पराए अपकर्ष ने भी,
करके संचार उन करुण स्वरों के संग;
साधन सहायक के रूप में ही काम किया,
खोलने में मंगली शुभ्र भावना का रंग।
(5)
काव्य में 'रहस्य' कोई 'वाद' हैं न ऐसा, जिसे
लेकर निराला कोई पंथ ही खड़ा करे;
यह तो परोक्ष रुचि-रंग की ही झाईं हैं, जो
पड़ती हैं व्यक्त में अव्यक्त-बिंबता धरे।
दृष्टि जो हमारी कर देती हैं लीन किसी,
धुंधली-सी माधुरी में लोक-काल से परे;
किंतु जो इसी के सदा झूठे स्वाँग रचे, उसे
हाँक दो, न घूम-घूम खेती काव्य की चरे।
(6)
पूरब में शुद्ध रूप में था यह यहाँ, वहाँ
पच्छिम में पहुँचा पखंड के प्रमाद तक;
अंगल की भूमि बीच ब्लेक1 ने जो ढोंग रचा,
देखते हैं आज यहाँ उसी की चढ़ी हैं झक।
जूठा औ पुराना यह पच्छिमी पखंड लेके,
होती हैं नवीनता की डींग-भरी बक-बक;
योरप के किसी-किसी कोने में रहे तो रहे,
रोकना हैं किन्तु यहाँ इसे आज भरसक।।
(7)
वीणापाणि वाणी लोकमानस-विहारिणी हैं,
लुकी-छिपी किसी-किसी कोने में न रहती;
परख पुरानी यह भारत की भास रही,
काल बल खाती काव्य-धारा बीच बहती।
पहुँचा उन्माद की दशा को जहाँ व्यक्तिवाद,
कविता वहाँ की रूप-हानि घोर सहती;
नाचती नटी-सी निरी दंभ की सताई हुई,
सच्चे भोले भाव कभी भूल के न कहती।
(8)
देख चुके दंभ के विकास का विधान यह,
सह चुके गिरा के भी गौरव का अपमान;
लालसा अज्ञात की बताके ढोंग रचते जो
शब्दों का झूठमूठ, अब हों वे सावधान।
आवें लोकलोचन समक्ष, देखें एक बार
अपनी यह कलाहीन कोरी शब्द की उड़ान;
बोलें तो हृदय पर हाथ रख सत्य-सत्य,
इसका वहाँ के किसी भाव से भी हैं मिलान।
(9)
भाषा हैं, न भाव हैं, न भूति भाँपने को आँख,
शिक्षा की सुभिक्षा भी न पाई कभी एक कन;
गाँथते हैं गर्व-भरी गुरु ज्ञान-गूदड़ी वे
चुने हुए चीथड़ों से, किए ब्रह्म लीन मन।
कहीं बंग-भंग-पद चकती चमक रही,
कहीं अंग्रेजी अनुवाद का अनाड़ीपन;
ऐसे सिद्ध साँइयों की माँग मतवालों में हैं,
काव्य में न झूठे स्वाँग खींचते कभी हैं मन।
(10)
कहाँ का अध्यात्म? अरे! कैसी ब्रह्मलिप्सा यह,
वासना का लंबा-चौड़ा रूप विकराल अति;
देह के मलों का यह सागर अपार!
काय वृत्तियों का झंझावात, झूठ की प्रचंड गति।
'अये', 'अये' भंडता की कैसी हैं पुकार यह,
जड़ता से जड़ी हुई कैसी यह मोटी मति;
अंधाधुंध कैसी! यह भेड़ियाधसान कैसी,
नकल-नवीसी कैसी! कितनी अज्ञान-रति।
('सुधा', फरवरी, 1928)