पाखण्डी / कर्मानंद आर्य
गाय को तुमने माँ कहा
पत्थर को देवता
नदियों में ले जाकर उड़ेल दी सारी आस्था
पर्वतों की ऊँची चोटी को
तुमने आराध्य की तरह पूजा
बहते हुए पानी में तुम्हें देवत्व नजर आया
गर्मियों में सूख जाने वाली दूब को
तुमने पूज्य बनाया
तुमने कौवे का ग्रास निकाला
चीटियों के रास्ते में आटा डाला
सूरज को जातवेदाः कहा
दसों दिशाओं से जोड़ा हाथ, हहा
बरगद, पीपल और बड़
तुमने चुना अपनी समिधाओं के लिए
तुलसी का चौरा तुमने ही बनाया
वट सावित्री महिलाओं के लिए
तुमने जीवितों की क्या भूतों की भी पूजा की
पत्थर तुम्हारे लिए अहिल्या हुई
तुमने जौ और अन्नकूट तिल को
बना दिया हवन
तुमने पानी को जल कहा
जल को कहा आचमन
तुम्हारी हर ऋचा कहलाई ‘साम ऋचा’
प्रकृति पूजकों में तुम्हारा नाम सबसे ऊपर हुआ
पर क्या हुआ ?
तुमने अपने से दिखने वाले मनुष्यों के लिए
चुना इतना क्रूर पथ ?
तुमने उन्हें पानी जैसी मूलभूत चीज से वंचित कर दिया
क्यों नहीं पसीजा तुम्हारा ह्रदय
तुमने उनके लिए षड्यंत्र ही किया आजीवन
उनका भाग खाते रहे
झुलसाते रहे उनका जीवन
तमाम जिंदगियाँ गुजार कर
तुमने अपनी गंदगी नहीं साफ़ की
पशु ही बने रहे
चलती रही तुम्हारे बाप की
तुमने पशुता की सारी हदें पार कर दी
अबकी बार तुमने उन्हें
मनुष्य का दर्जा देने से मना कर दिया
कितना दर्द दिया
तुम देवता की खोल में ‘देवता’ तो बने नहीं
दानवों से भी नीचे गिर गए
पाताल की किसी घृणित कन्दरा में
फिर गए, फिर गए
पाखण्डी !!!!!!!!