भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पागलपन / सुशान्त सुप्रिय
Kavita Kosh से
शत्रु को मारना चाहता हूँ तो
दिखने लगते हैं उसमें भी मित्र मुझे
जिन्हें ग़ैर समझता आया था
उन्हीं धर्मों-समुदायों के महापुरुष
लगने लगते हैं अपने मुझे
स्त्री को हेय समझा तो
वह मिली कभी माँ
कभी बहन
कभी बेटी के रूप में
और दिल जीत लिया मेरा उसने
जितना ही घृणा करना चाहता हूँ किसी से
उतना ही उसकी अच्छाई का पता चलता है
और उसके प्रेम की गिरफ़्त में
चला जाता हूँ मैं
जिसे मारने दौड़ता हूँ
उसी में दिखने लगता है ईश्वर
उसी के आगे सिर झुकाता हूँ
यदि यह मेरा पागलपन है
तो यही सही