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पाग़ल मौहब्बत / सुरजीत
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मेरी मुहब्बत को ही
यह पाग़लपन क्यों है
कि तू रहे मेरे संग
जैसे रहती हैं मेरे साथ
मेरे साँसे
तसव्वुर में तू है
इंतज़ार में तू है
नज़र में तू है
अस्तित्व में भी तू !
मेरी मुहब्बत को
यह कैसा पाग़लपन है
कि मेरे दुपट्टे की छोर में
तू चाबियों के गुच्छे की तरह बँधा रहे !
मेरे पर्स की तनी की भाँति
मेरे कन्धे पर लटका रहे !
मैंने ही क्यूँ ऐसे इंतज़ार किया तेरा
जैसे बादवान
हवा की प्रतीक्षा करते है
जैसे बेड़े
मल्लाहों का इंतज़ार करते हैं!
मेरी ही सोच क्यूँ
तेरे दर पर खड़ी हो गई है
मेरी नज़र ही क्यूँ
तेरी तलाश के बाद
पत्थर हो गई है !