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पाजामे से बाहर / सुकुमार राय

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भाई घेघा, घेघा जी गरुड़<ref>हाड़गिला (बंगला नाम) गिद्ध जैसे आहार-विहार वाला काफी बदसूरत पक्षी है। अँग्रेज़ी में कहते हैं greater adjutant। हिन्दी नाम बेढंगा है, इसलिए मैंने घेघा गरुड़ नाम दे दिया है। -- अनुवादक</ref>, पाजामे से बाहर क्यों?
इन छोटे-मोटे लोगों से झगड़ा-टण्टा नाहक़ क्यों?

ज्ञानवृद्ध , सम्माननीय हैं, बड़ी हैसियत के परवाज़
इन ओछों के मुँह लगना क्या तुमको शोभेगा, महराज?

सुना है इन लोगों ने कहा है, "चीं चीं च्यूँ च्यूँ चींनीं चीनीं"
यानी शकल तुम्हारी के बारे में भीषण नुक़्ताचीनी।

मान लो बोले हों तो सोचो उनका ही मुँह हुआ ख़राब
उजड्ड सब, भोगेंगे करनी, आएगा उनपे ही अज़ाब।

लँगड़ा कहा तुम्हें ? दुरभागे, बदतमीज़, उल्लू की दुम !
अरे, उन्हें क्या पता नहीं है गठिया भोग रहे हो तुम?

अब ऐसी बातों को लेकर तुम भी तांडव करो अगर
उलझो ऐसे लोगों से, तो बिला वजह छीछालेदर।

सुनो तो ज़रा क्या आपस में बात कर रहे हैं पाजी,
"घेघा के गंजे सिर पर अब होगी दुम् तबलाबाज़ी!"

चार अंगुल की बड़बोली गौरैया भी ये तुम्हें चिढ़ाए
"घेघा दादा मोटे सुर में क्या तो लम्बी तान लगाए !"

और कहे, "अब करो रफ़ू अपनी गुदड़ी-सी खाल ज़रा
पानी में लँगड़े पावों से उतरो, करो कमाल ज़रा।"

बस दादा, तुम गुस्सा थूको और यहाँ से खिसक चलो
भला लगाना क्यों इनको मुँह, इनसे बच करके निकलो।

सुकुमार राय की कविता : बेजाय राग (বেজায় রাগ) का अनुवाद
शिव किशोर तिवारी द्वारा मूल बांग्ला से अनूदित

शब्दार्थ
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