पाटलिपुत्र की गंगा से / रामधारी सिंह "दिनकर"
सन्ध्या की इस मलिन सेज पर
गंगे! किस विषाद के संग,
सिसक-सिसक कर सुला रही तू
अपने मन की मृदुल उमंग?
उमड़ रही प्लावित कर प्राणों
को कैसी वेदना अथाह?
किस पीड़ा के गहन भार से
निश्चल-सा पड़ गया प्रवाह?
मन के मौन मुकुल से कढ़कर
देवि! कौन - सी व्यथा अपार
बनकर गन्ध अनिल में मिल
जाने को खोज रही लघु द्वार?
चल अतीत की रंगभूमि में
स्मृति-पंखों पर चढ़ अनजान
विकल-चित्त सुनती तू अपने
चन्द्रगुप्त का क्या जय-गान?
घूम रहा पलकों के भीतर
स्वप्नों-सा गत विभव विराट्?
आता है क्या याद मगध का
सुरसरि! वह अशोक सम्राट्?
संन्यासिनी-समान विजन में
धर अतीत गौरव का ध्यान,
रो-रोकर गा रही देवि! क्या
गुप्त-वंश का गरिमा-गान?
गूँज रहे तेरे इस तट पर
गंगे! गौतम के उपदेश;
ध्वनित हो रहे इन लहरों में
देवि! अहिंसा के सन्देश।
कुहुक - कुहुक मृदु गीत वही
गाती कोयल डाली - डाली;
वही स्वर्ण -सन्देश नित्य
बन आता ऊषा की लाली।
तुझे याद है, चढ़े पदों पर
कितने जय-सुमनों के हार?
कितने बार समुद्रगुप्त ने
धोयी है तुझमें तलवार?
तेरे तीरों पर दिग्विजयी
नृप के कितने बड़े निशान!
कितनी चक्रवर्त्तियों ने हैं
किये कूल पर अवभृथ-स्नान?
विजयी चन्द्रगुप्त के पद पर
सेल्यूकस की वह मनुहार,
तुझे याद है, देवि! मगध का
वह विराट् उज्जवल श्रृंगार?
जगती पर छाया करती थी
कभी हमारी भुजा विशाल;
बार-बार झुकते थे पद पर
ग्रीक, यवन के उन्नत भाल।
उस अतीत गौरव की गाथा
छिपी उन्हीं उपकूलों में,
र्कीर्ति-सुरभि वह गमक रही
अब भी तेरे वन-फूलों में।
नियति - नटी ने खेल-कूद में
किया नष्ट सारा श्रृंगार;
खॅंडहर की धूलों में सोया
तेरा स्वर्णोदय साकार।
तूने सुख-सुहाग देखा है,
उदय और फिर अस्त, सखी!
देख, आज निज युवराजों को
भिक्षाटन में व्यस्त, सखी!
एक - एक कर गिरे मुकुट,
विकसित वन भस्मीभूत हुआ;
तेरे सम्मुख महासिन्धु
सूखा, सैकत उद्भूत हुआ।
धधक उठा तेरे मरघट में
जिस दिन सोने का संसार,
एक-एक कर लगा दहकने
मगध - सुन्दरी का श्रृंगार;
जिस दिन जली चिता गौरव की,
जय-भेरी जब मूक हुई;
जमकर पत्थर हुई न क्यों,
यदि टूट नहीं दो टूक हुई?
देवि! आज बज रही छिपी ध्वनि
मिट्टी में नक्कारों की;
गूँज रही झन - झन धूलों में
मौर्यों की तलवारों की।
दायें पार्श्व पड़ा सोता
मिट्टी में मगध शक्तिशाली,
वीर लिच्छवी की विधवा
बायें रोती है वैशाली।
तू निज मानस - ग्रन्थ खोल
दोनों की गरिमा गाती है,
बीचि - दृगों से हेर - हेर
सिर धुन-धुनकर रह जाती है।
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देवि! दुखद है वर्तमान का
यह असीम पीड़ा सहना;
कहों सुखद इससे संस्मृति में
है अतीत की रत रहना।
अस्तु, आज गोधूलि-लग्न में
गंगे! मन्द - मन्द बहना,
गाँवों, नगरों के समीप चल
दर्द भरे स्वर में कहना।
सम्प्रति जिसकी दरिद्रता का
करते हो तुम सब उपहास;
वहीं कभी मैंने देखा है
मौर्य-वंश का विभव-विलास।